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राजस्थान के क्रांतिकारी

राजस्थान के क्रांतिकारी - राजस्थान का स्वतंत्रता आंदोलन एवं शौर्य परंपरा कक्षा 9वीं की किताब से

दिल्ली की बादशाहत के विघटित होने के बाद ही यहां अंग्रेजों को अपने पाँव पसारने का अवसर मिला। राजस्थान में सामन्तवाद के सबसे क्रूर और घृणित रूप अंग्रेजों के शासनकाल की देन है। परंतु इस काल के आरम्भ होने के साथ ही उस शासन का विरोध भी आरम्भ हो गया था।

इस दौर की अनेक साम्राज्य विरोधी कविताओं का संबंध भरतपुर से है। मराठा सरदार होलकर ने यहां शरण ली थी। भरतपुर के राजा रणजीत सिंह ने अंग्रेजों से संधि के बावजूद होलकर को अंग्रेजों के हवाले करने से इन्कार कर दिया। इस पर अंग्रेजों ने भरतपुर पर हमला किया।

आछो गोरा हट जा।

राज भरतपुर को रै गोरा हट जा। 

भरतपुर गढ़ बाँको, किलो रे बाँको।

गोरा हट जा।

भरतपुर से संबंधित एक कविता कविराजा बाँकीदास की है। वह जोधपुर नरेश मानसिंह के राजकवि और उनके काव्यगुरु थे। उनकी ग्रंथावली नागरी प्रचारिणी सभा से तीन खंडों में प्रकाशित हो चुकी है। इनकी लिखी तथा संकलित, राजस्थानी में 2700 ऐतिहासिक वातें भी हैं। विभिन्न भाषाओं की जानकारी के साथ-साथ इतिहास का भी इन्हें बहुत अच्छा ज्ञान था। इनका निधन 1833 ई. में हुआ।

उतन विलायत किलकता कानपुर आविया,

ममोई लंक मदरास मेला।

यलम धुर वहण अंग्रेज वाटन चला,

भरतपुर ऊपरा हुवा मेला।

विलायत से आकर अंग्रेज अपने इल्म के बल पर कलकत्ता, कानपुर, बंबई, मद्रास तक अधिकार करता चला गया और अब वह भरतपुर पर चढ़ आया। ये सब नगर जिस देश में हैं, उसका नाम भरतखंड है। अंग्रेजों ने जो फौज बटोरी है, वह इसी देश के विभिन्न प्रदेशों के लोगों से बनी है।

सैन रिजमंट असंख मलटणां तणे संग 

भड़ तिलंक बंग किलंग तणा मिलिया 

अभंग जंग भरतखंड पारका ऊसर ऊवै, 

मारका वजंद्र रै दुरंग मिलिया।

कविता में उल्लास का स्वर है क्योंकि अंग्रेज आक्रमणकारी विजयी न हुए थे। गीत की दो मजेदार पक्तियां हैं-

थया वलहीण लसकर फिरंगथांन रा, 

चीण इनॉन रा इलम चलिया।

फिरंगिस्तान का लश्कर बलहीन हो गया, चीन और यूनान से जो इल्म सीखा था, वह व्यर्थ हो गया। भारत के सामन्त बिना लड़े ही अपनी भूमि शत्रु को सौंपते जाते है, इससे कवि बाँकीदास बहुत दुखी थे। इन सामन्तों में राजस्थान के सामन्त सबसे आगे थे।

आयौ इंगरेज मुलक रै ऊपर, आहँस लीधा खैचि उरा। 

धणियाँ मरै न दीधी धरती, धणियाँ ऊभो गई धरा।

अंग्रेज मुल्क पर चढ़ आया। उसने देश का सत खींच लिया। अब के स्वामियों के कभी प्राण रहते भी धरती उनके हाथ से निकल गई। गीत के अंत में राज्यों के नाम लेकर कवि ने उनके स्वामियों को फटकारा है। 

पुर जोधाण, उदैपुर, जैपुर, यह धाँरा खूटा परियाण। 

आँके गई आवसी आँके, बाँके आसल किया बखांण।

जोधपुर, उदयपुर, जयपुर आदि ने अपने गौरव का नाश कर दिया। 'देश को गुलाम होना था और वह हो गया। जब आजाद होना होगा, तब हो जाएगा। तुम्हारे किए अब कुछ नहीं होने का। सच्ची बात को मैंने सच्चाई के तरीके से प्रकट कर दिया है। अंग्रेजों से संधि करके गद्दी बचाए रखने वाले सामन्त वास्तव में स्वाधीन नहीं हैं, यह तथ्य कवि बाँकीदास के सामने स्पष्ट है। आगे स्थिति बदलेगी, यह आशा भी उन्हें है।

सन् 1857 ई. से पहले ब्रिटिश फौज के कुछ सैनिकों ने राजस्थान में विद्रोह किया था। इस प्रसंग में डूंगजी और जवाहरजी प्रसिद्ध हुए और उन पर लोकगीत रचे गए। राजस्थान स्वतंत्रता संग्राम काव्य में दिए हुए विवरण के अनुसार 1818 ई. में अंग्रेजों ने संधि की। शेखावटी क्षेत्र के लोगों ने इसका विरोध किया। विरोध के दमन के लिए अंग्रेजों ने शेखावटी ब्रिगेड संगठित किया। 1834 ई. में डूंगजी के नेतृत्व में इस ब्रिगेड के कुछ सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। 1838 ई. में अंग्रेजों ने डूंगजी को पकड़ लिया और उन्हें आगरे के किले में कैद कर लिया। जवाहरजी ने अपने सहयोगियों को लेकर किले पर हमला किया और डूंगजी को छुड़ा लिया। वहां से निकल कर इन्होंने नसीराबाद की छावनी पर हमला किया और अंग्रेजों का खजाना लूट लिया। इससे उनके साहस और शौर्य की गाथा सर्वत्र फैल गई। अनेक समकालीन कवियों ने उन पर अनेक कविताएं लिखी। लोक में उनसे संबंधित गाथा, जो छावनी के नाम से प्रसिद्ध है, गाई जाने लगी। अंग्रेजों के विरुद्ध वीरतापूर्ण कार्यों से प्रेरित होकर जो लोक कविता रची गई, वह इस तरह राजस्थान की जनता के नवजागरण का माध्यम बनी।

1857 ई. का स्वागत कवि सूर्यमल्ल (अथवा सूरजमल) ने किया।

बीरम बरसाँ बीतियो, गण चौचंद गुणीस।

बिसहर तिथ गरु जेत बद समय पलटती सीस।। 

"हिन्दुस्तान में अब कुछ परिवर्तन हो, अब कुछ उथल-पुथल हो, इसी आशा-आकांक्षा में संवत उन्नीस सौ चौदह का एक वर्ष तो मानो युग के समान लंबा होकर आखिर बीत गया। पर नए साल के आरंभ होते ही जेठ बदि पाँचम व गुरुवार के दिन (सन् 1857) समय रूपी विषधर नाग ने (अंग्रेजों की देह में) अपने जहरीले दांत गड़ा कर एकदम पलटा खाया।" जेठ में न तो संवत् 1914 ई. समाप्त हो सकता है, न 1857 ई. आरंभ हो सकता है। संभवतः जेठ बदी पंचमी वह दिन है जब युद्ध आरंभ हुआ। काल सर्प ने अंग्रेजों को डस कर उस दिन पलटा खाया। स्वाधीनता संग्राम शुरु होते ही किसी कवि की यह भावात्मक प्रतिक्रिया इतिहास में अभूतपूर्व है। इसके बाद सूर्यमल्ल जनता को संघर्ष के लिए प्रेरणा देते हुए और भी दोहे लिखते रहे।

सूर्यमल्ल की उत्कृष्ट कृति वीर सतसई के संपादकों ने उसकी भूमिका में कवि पर सन् सत्तावन के संग्राम का प्रभाव स्वीकार करते हुए लिखा है "जिस समय सतसई का निर्माण हुआ, उस समय देश में 1857 ई. के विद्रोह की ज्वाला भड़क रही थी। सारा देश विदेशी सत्ता का तख्ता पलटने के लिए व्यग्र हो उठा था। गदरकालीन परिस्थिति का कवि पर बड़ा स्फूर्तिदायक प्रभाव पड़ा था। लोगों को प्रेरणा देने के लिए जो कुछ उन्होंने लिखा पढ़ी की, वह सब तात्कालिक परिस्थितियों के दवाब के कारण पोशीदा रुप में हुई। सूर्यमल्ल स्वाधीनता संग्राम से प्रभावित होने वाले साहित्यकार के अलावा उसके राजनीतिक संगठनकर्ता भी थे।

सन् सत्तावन में बड़े सामन्तों ने आम तौर से अंग्रेजों का साथ दिया, छोटे सामंतों ने जनता का साथ दिया। देशी पलटनों के विद्रोही सैनिकों ने इन सामन्तों को साथ लेकर अंग्रेजों से युद्ध किया। यह विशेषता आउवा के युद्ध में साफ दिखाई देती है। आउवा के संघर्ष पर रचे जाते, यह स्वाभाविक था। एक गीत यों शुरु होता है :

वणिया वाली गोचर माँय, कालो गो दड़ियो गो, 

राजा जी रै भेजो तो फिरंगी लड़ियो ओ, 

काली टोपी रो। 

हे ओ, काली टोपी रो, फिरंगी फैलाव कीधो ओ, 

काली टोपी रो।

"आउवे की धरती पर फिरंगी आ धमका है। उसको बाहर खदेड़ने के लिए गांव की गोचर में काले सिपाही डटे हुए हैं। फिरंगी का पक्ष लेकर उसके साथ हमारा राजा भी चढ़ आया है। गोरी देह वाला यह फिरंगी निरंतर फैलाव करता जा रहा है।"

ऐसे ही एक कवि गिरवरदान थे। इन्होंने आउवा के युद्ध पर तीन छप्पय लिखे थे। पहली पंक्ति है: 

बरती चवदह बरस, पडै इल बेध अपाएँ।

यहां सन् 1857 ई. में धरती पर जो उथल-पुथल हुई, उसकी ओर संकेत है। अंतिम पंक्ति है 

आजाद हिंद करवा उमंग, निडर आउवा नाथ रै।

यहां कवि ने बड़ी सूझबूझ से आउवा के स्थानीय संघर्ष को सारे भारत की आजादी की लड़ाई से जोड़ा है। बंगभंग के बाद स्वदेशी आंदालन ने जोर पकड़ा, इसके साथ ही सशस्त्र क्रांति के प्रयास आरंभ हुए। ये प्रयास राजस्थान में भी हुए। इनकी विशेषता यह है कि वे आरंभ से ही समाज सुधार और शिक्षा प्रसार से जुड़े रहे। क्रमशः उन्होंने किसानों को आधार बनाकर जन-आंदोलनों का रूप लिया। यद्यपि उनका क्षेत्र सीमित था, फिर भी उन्होंने देश के सामने मिसाल रखी।

डूंगजी-जवाहरजी, सीकर :

1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम में सीकर क्षेत्र के काका-भतीजा डूंगजी-जवाहरजी प्रसिद्ध देशभक्त हुए। डूंगजी शेखावटी ब्रिगेड में रिसालेदार थे। बाद में वे नौकरी छोड़कर धनी लोगों से देश की आजादी के लिये धन मांगने लगे और धन नहीं मिलने पर उनके यहाँ डाका डालने लगे। इस धन से वे निर्धन व्यक्तियों की भी सहायता करते। इन दोनों ने अपने साथियों की सहायता से कई बार अंग्रेज छावनियों को भी लूटा। डूंगजी के साले भैरूसिंह ने डूंगजी को भोजन पर अपने यहाँ बुलवाया और वहाँ अत्यधिक शराब पिलाकर उन्हें पकड़वा दिया। अंग्रेजों ने उन्हें आगरा के दुर्ग में बंद कर दिया। डूंगजी की पत्नी की फटकार से जवाहरजी ने उन्हें छुड़वाने की प्रतिज्ञा की। कहा जाता है कि लोटिया जाट और करणा मीणा अपनी वीरता और बुद्धिमता से डूंगजी को छुड़वाकर लाए।

बीकानेर के पास घड़सीसर में अंग्रेजी फौज ने बीकानेर और जोधपुर राज्य की फौजों के साथ मिलकर डूंगजी-जवाहरजी को घेर लिया। जवाहरजी तो भागकर बीकानेर रियासत के खैरखट्टा स्थान पर पहुंच गए, जहाँ महाराज रतनसिंह ने उन्हें प्रेमपूर्वक रखा। डूंगजी जैसलमेर में गिरदड़ा की काकीमैडी पहुंच गए, जहाँ जोधपुर की सेना ने उन्हें छलपूर्वक कैद करके अंग्रेज सेना को सौंप दिया। इससे लोगों में असंतोष की ज्वाला भड़क उठी। अंग्रेजों ने डूंगजी को वापस जोधुपर राज्य की सेना को सौंप दिया। जोधपुर के दुर्ग में ही डूंगजी का निधन हुआ।

लोठूजी निठारवाल, सीकर (1804-1855 ई.):

लोवू निठारवाल का जन्म जाट परिवार में 1804 ई. में रींगस में हुआ था, जहाँ से वह, वहाँ के ठाकुर से अनबन होने के कारण अपनी बहन के पास बठोठ में आ गए। यहाँ इनका सम्पर्क डूंगजी - जवाहरजी से हुआ।

जब डूंगजी को अंग्रेजों ने गिरफ्तार करके आगरा की जेल में बंद कर दिया था, तो लोठू ने बालू नाई, सांखू लुहार व करणा मीणा आदि के साथ मिलकर डूंगजी को आगरा से रिहा करवाने की योजना बनाई और अंग्रेजों को चकमा देने के लिए अपने साथियों के साथ एक बारात के रूप में आगरा पहुँचे तथा अदम्य साहस का परिचय देते हुए डूंगजी को रिहा करवा लाए। इसके बाद लोठूजी, डूंगजी, जवाहरजी के साथ अंग्रेज विरोधी गतिविधियों को अंजाम देते रहे। 1855 ई. में इनकी मृत्यु हो गई।

अमरचंद बांठिया, बीकानेर (1793-1858):

देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857 ई.) में राजस्थान के प्रथम व्यक्ति जिन्हें ब्रिटिश सत्ता ने फाँसी पर लटकाया, वह राजस्थान निवासी अमरचंद बांठिया था, जो ग्वालियर में अपना व्यापार चलाता था। उन्होंने अपनी पूरी धन-सम्पत्ति ताँत्या टोपे को देने का प्रस्ताव किया जिससे वह आजादी की लड़ाई को चालू रख सके। यही कुर्बानी बाद में उनकी फांसी का कारण बनी।

विजयसिंह पथिक (1882-1954), बिजौलिया :

भारत के प्रसिद्ध क्रान्तिकारी भूपसिंह (विजयसिंह पथिक) का जन्म 1882 में ग्राम गुठावली, जिला बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) में हुआ एवं इनकी कर्मभूमि राजस्थान थी। विजय सिंह पथिक 'वीर भारत सभा' एवं 'राजस्थान सेवा संघ' के संस्थापक एवं सम्पूर्ण भारत में किसान आंदोलन के जनक व चोटी के क्रान्तिकारी थे, जिनका गहरा सम्बन्ध बिजौलिया किसान आन्दोलन से था। अजमेर में सशस्त्र क्रान्ति की क्रियान्विति, क्रान्तिकारियों की भर्ती व प्रशिक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। साथ ही 'राजस्थान केसरी', 'नवीन राजस्थान', तरुण राजस्थान' आदि समाचार पत्रों के माध्यम से राजस्थान में जनजागृति फैलाने में अग्रणी भूमिका निभाई।

अर्जुनलाल सेठी (1880-1941) जयपुर :

राजस्थान में स्वतंत्रता आंदोलन के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी एवं क्रांतिकारी अर्जुनलाल सेठी की जन्मभूमि जयपुर थी। अर्जुनलाल सेठी ने राजस्थान में सशस्त्र क्रांति और जनजागृति का अलख जगाया। सेठी ने जयपुर में सन् 1905 ई. में 'जैन शिक्षा प्रचारक समिति' की स्थापना की और उसके तत्त्वावधान में 'वर्धमान विद्यालय', 'वर्धमान छात्रावास' और 'वर्धमान पुस्तकालय' चलाए, जो क्रान्तिकारियों के प्रशिक्षण केन्द्र थे। तत्कालीन जयपुर के महाराजा सवाई माधोसिंह द्वितीय ने उन्हें राज्य का प्रधानमंत्री बनाने का पेशकश की थी, किन्तु राष्ट्रप्रेम के कारण उन्होंने इसे यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि "अर्जुनलाल नौकरी करेगा, तो अंग्रेजों को भारत से कौन निकालेगा।"

सेठी ने देश में भावी क्रान्ति के लिये युवकों को तैयार किया। जोरावर सिंह, प्रतापसिंह, माणिकचन्द्र, मोतीचन्द, विष्णुदत्त आदि क्रान्तिकारी इन्हीं के विद्यालय से जुड़े थे। सेठी हार्डिंग बम काण्ड, आरा हत्याकाण्ड, काकोरी कार्रवाई से सम्बद्ध थे।

अजमेर में रहते हुए 'शूद्र मुक्ति', 'स्त्री मुक्ति', 'महेन्द्र कुमार' आदि पुस्तकें लिखी। इन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करने का प्रयास किया।

केसरीसिंह बारहठ (1872-1941), शाहपुरा :

राजस्थान के प्रसिद्ध कवि एंव क्रान्तिकारी केसरीसिंह बारहठ की जन्मभूमि शाहपुरा एवं कर्मभूमि कोटा थी। इनका जन्म 1872 में शाहपुरा रियासत के 'देवपुरा' नामक गांव में हुआ।

सन् 1903 में वायसराय लार्ड कर्जन द्वारा आहूत दिल्ली दरबार में शामिल होने से रोकने के लिए उन्होंने उदयपुर के महाराणा फतेह सिंह को संबोधित करते हुए 'चेतावनी रा चूंगटिया' नामक तेरह सौरठे लिखे जो उनकी अंग्रेजों के विरुद्ध भावना की स्पष्ट अभिव्यक्ति थी। ब्रिटिश सरकार की गुप्त रिपोर्टों में राजपूताना में विप्लव फैलाने के लिए केसरी सिंह बारहठ व अर्जुन लाल सेठी को खास जिम्मेदार माना गया ।

उन्होंने राजस्थान के सभी वर्गों को क्रान्तिकारी गतिविधियों से जोड़ने के लिए 1910 ई. में 'वीर भारत सभा की स्थापना की। राजस्थान में सशस्त्र क्रान्ति का संचालन किया तथा स्वतंत्रता की आग में अपने सम्पूर्ण परिवार को झोंक दिया। श्री बारहठ ने अपने सहोदर जोरावर सिंह, पुत्र प्रतापसिंह एवं जामाता ईश्वरदान आसिया को रासबिहारी बोस के सहायक मास्टर अमीरचन्द की सेवा में क्रांति का व्यावहारिक अनुभव और प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए भेज दिया।

देश की स्वतंत्रता के लिए अपना सब कुछ होम कर देने वाले क्रांतिकारी कवि केसरी सिंह ने अगस्त, 1941 को अंतिम सांस ली।

कुंवर प्रतापसिंह बारहठ (1893-1918) शाहपुरा :

1893 ई. में शाहपुरा में जन्मे कुंवर प्रतापसिंह को देशभक्ति विरासत में मिली थी। इनके पिता केसरी सिंह बारहठ एवं चाचा जोरावर सिंह बारहठ प्रसिद्ध क्रांतिकारी थे। क्रांतिकारी मास्टर अमीरचंद से प्रेरणा लेकर देश को स्वतंत्र करवाने में जुट गए। वे रासबिहारी बोस का अनुसरण करते हुए क्रांतिकारी आंदोलन में सम्मिलित हुए। रास बिहारी बोस का प्रताप सिंह पर बहुत विश्वास था।

प्रतापसिंह बारहठ को बनारस काण्ड के संदर्भ में गिरफ्तार किया गया और सन् 1917 में बनारस षड्यंत्र अभियोग चलाकर उन्हें 5 वर्ष के सश्रम कारावास की सजा हुई। बरेली के केंद्रीय कारागार में उन्हें अमानवीय यातनाएं दी गई, ताकि अपने सहयोगियों का नाम उनसे पता किया जा सके, किन्तु उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया।

भारत सरकार के गुप्तचर निदेशक सर चार्ल्स क्लीवलैण्ड ने प्रताप को घोर यातना दी। मगर यह सब भी प्रताप को नहीं तोड़ पाए। बरेली जेल में ही क्लीवलैण्ड ने प्रतापसिंह से राज उलगवाने के लिए कहा कि 'तुम्हारी मां तुम्हारे लिए बहुत रोती है। तब प्रताप ने जवाब दिया" लेकिन मैं सैंकड़ों माताओं के रोने का कारण नहीं बन सकता। मेरी मां को रोने दो जिससे अन्य कोई न रोए। " अमानुषिक यातनाओं के कारण 1918 ई. में मात्र 22 वर्ष की आयु में प्रताप सिंह शहीद हो गए। हार कर क्लीवलैण्ड को यह कहना पड़ा, 'मैंने आज तक प्रताप सिंह जैसा युवक नहीं देखा।'

बालमुकुन्द बिस्सा, जोधुपर (1908-1942):

इन्होंने नागौर में' चरखा संघ' एवं 'खद्दर भण्डार' की स्थापना कर इनका प्रचार-प्रसार किया। ' राजस्थान के जतिनदास' बालमुकुन्द बिस्सा का जन्म 1908 में डीडवाना तहसील के पीलवा गांव में एक साधारण परिवार में हुआ। 1942 ई. में जयनारायण व्यास के नेतृत्व में शुरू हुए जनान्दोलन के दौरान बिस्सा को 9 जून, 1942 को भारत रक्षा कानून के अन्तर्गत बंदी बनाकर जेल में डाल दिया गया। जेल में राजनीतिक बंदियों से होने वाले दुर्व्यवहार के विरुद्ध बिस्सा ने लंबी भूख हड़ताल की। जेल में बंदियों के दमन और हड़ताल में बिस्सा बहुत कमजोर हो गए और उन पर लू का भी प्रकोप हो गया। 19 जून को उन्हें वार्ड से जेल अस्पताल भिजवाया गया जहां अधिकारियों की लापरवाही के कारण उनका उसी दिन निधन हो गया। बिस्सा के निधन का समाचार समूचे नगर में बिजली की तरह फैल गया और देखते देखते अस्पताल व सामने लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई। उस जमाने में लगभग एक लाख लोगों ने मीलों पैदल चलकर उनकी अन्त्येष्टि में भाग लिया।

सागरमल गोपा, जैसलमेर :

जैसलमेर में जन्में सागरमल गोपा जीवनपर्यन्त अपनी जन्मभूमि के दुःखों को दूर करते रहे। इन्होंने अत्याचारी निरंकुश राजशाही का कड़ा विरोध कर जैसलमेर राज्य में राजनीतिक चेतना उत्पन्न करने के साथ साथ शिक्षा प्रसार पर विशेष जोर दिया। गोपा ने 'आजादी के दीवाने' 'रघुनाथ सिंह का मुकदमा' एवं 'जैसलमेर का गुण्डाराज' पुस्तकें छपवाकर वितरित की जिनमें जैसलमेर राजशाही के काले कारनामों की लम्बी सूची एवं उनकी कटु आलोचना की। इसके लिए इनको राज के कोप का भाजन बनना पड़ा।

इन्हें राजद्रोह के आरोप में 24 मई, 1941 ई. को जेल में डालकर इन पर अमानवीय अत्याचार किए गए। जेल में अप्रैल, 1946 में इन पर तेल छिड़ककर आग लगाकर इन्हें अत्याचारी सत्ता ने जीवित ही जला दिया।

नानाभाई खांट, रास्तापाल (डूंगरपुर) :

डूंगरपुर प्रजामण्डल ने उत्तरदायी शासन की स्थापनार्थ एवं रियासती अत्याचारों के विरुद्ध 1947 ई. में आन्दोलन चलाया जिसे माणिक्यलाल वर्मा का निर्देशन प्राप्त था। रास्तापाल के नानाभाई खांट ने प्रतिज्ञा की- "जब तक मेरी जान रहेगी, तब तक मैं अपने गांव रास्तापाल की पाठशाला बन्द नहीं होने दूंगा।" इस निर्णय की जानकारी जब जागीरदार ने रियासत को दी, तो पुलिस सुपरिन्टेण्डेण्ट और जिला मजिस्ट्रेट पाठशाला को जबरन बन्द कराने 18 जून, 1947 को दल-बल सहित ग्राम रास्तापाल पहुंच गए। नानाभाई खांट ने उत्तर दिया, 'प्रजामण्डल के आदेश से ही पाठशाला बन्द की जा सकती है।' मजिस्ट्रेट ने कहा, मैं महारावल का आदेश लेकर आया हूँ। नानाभाई ने महारावल का आदेश मानने से इन्कार कर दिया। तब डंडो और बन्दूकों के कुन्दों से पाठशाला के आंगन में ही नानाभाई खांट की निर्मम पिटाई की गई। बन्दूकों के प्रहारों और आघातों से वे इतने घायल हो गए कि चिर निद्रा में सो गए।

'सरदार' हरलालसिंह, झुंझुनूं :

सरदार हरलालसिंह का जन्म झुंझुनूं जिले के हनुमानपुरा गांव में 1901 ई. में हुआ था। सरदार हरलालसिंह अशिक्षित थे। हरलालसिंह ने रियासती एवं जागीरदारी जुल्मों का डटकर विरोध किया। किसान एवं प्रजामण्डल आन्दोलन में इन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। 'विद्यार्थी भवन झुंझुनूं की स्थापना कर उसे राजनीतिक एवं सामाजिक गतिविधियों का केन्द्र बनाया। इसी केन्द्र से उन्होंने किसान आन्दोलन का संचालन किया। कुशल नेतृत्व के कारण उनके सहयोगियों ने उन्हें 'सरदार' उपाधि दी।

कप्तान दुर्गाप्रसाद, नीम का थाना :

कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी का जन्म 1905 ई. में नीम का थाना में हुआ। इनकी प्रारंभिक शिक्षा अर्जुनलाल सेठी की 'वर्धमान पाठशाला' में तथा उसके उपरान्त सांभर तथा कानपुर में हुई। चौधरी ने 'राजस्थान सेवा संघ' के अन्तर्गत बिजौलिया में कार्य किया और 1930 ई. में स्वाधीनता आंदोलन में शामिल हो गए। 1930 ई. से 1947 ई. तक राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने के कारण अनेक बार जेल गए। दुर्गा प्रसाद चौधरी ने एक पत्रकार के रूप में अपनी पहचान बनाई। 

इन्होंने अजमेर और जयपुर से प्रकाशित 'दैनिक नवज्योति' का लंबे समय तक सम्पादन किया।

जानकी देवी बजाज, सीकर :

इनका जन्म लक्ष्मणगढ़ के सेठ गिरधारीलाल जाजोदिया के यहाँ 1893 ई. में मध्यप्रदेश के जावरा कस्बे में हुआ। 1902 में जमनालाल बजाज के साथ जानकी देवी का विवाह हुआ और इन्हें ससुराल वर्धा में रहना पड़ा। सर्वप्रथम जानकी देवी ने जड़ परम्पराओं को तिलांजलि दी, तभी खुलकर सत्याग्रह में भाग ले सकी। बजाज जी के देहान्त के बाद इनको गौसेवा संघ की अध्यक्ष बनाया गया। ये जयपुर प्रजामण्डल के 1944 ई के अधिवेशन की अध्यक्ष चुनी गई।

अंजना देवी चौधरी, सीकर :

इनका जन्म 1897 ई. में सीकर जिले के श्रीमाधोपुर में एक मध्यम वर्गीय अग्रवाल परिवार में हुआ। इनका विवाह 1911 ई. में रामनारायण चौधरी से हुआ। अपने पति की इच्छानुसार 20 वर्ष की आयु में पर्दा प्रथा त्याग कर राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में सहयोग करने का संकल्प लिया। 1921-24 में मेवाड़, बूंदी राज्यों की स्त्रियों में राष्ट्रीयता, समाज सुधार की भावना को बढ़ावा दिया तथा उनके साथ सत्याग्रह का कार्य किया। चाहे दलितोत्थान का कार्य रहा हो अथवा अन्य रचनात्मक कार्य, इन्होंने अपने पति का भरपूर साथ दिया। ये समस्त रियासती जनता में गिरफ्तार होने वाली पहली महिला थीं।

रतन शास्त्री, जयपुर :

इनका जन्म 15 अक्टूबर, 1912 ई. में खाचरोद (म.प्र.) में रघुनाथजी व्यास के यहाँ पर हुआ। इनका विवाह हीरालाल शास्त्री से हुआ। सन् 1929 ई. के ग्राम सेवा ग्रामोत्थान एवं जनसेवा के उद्देश्य से वनस्थली में इन्होंने हीरालाल शास्त्री द्वारा लड़कियों की शिक्षा के लिए स्थापित जीवन कुटीर कार्यक्रम में पूरा सहयोग प्रदान किया। रतन शास्त्री ने सन् 1939 ई. में जयपुर राज्य प्रजामण्डल के सत्याग्रह आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया और सन् 1942 ई. के भारत छोड़ो आन्दोलन में भूमिगत कार्यकर्ताओं और उनके परिवारों की सेवा की।

रमा देवी, जयपुर :

इनका जन्म जयपुर में वैद्य गंगासहाय के घर में हुआ। इनका विवाह 7 वर्ष की उम्र में ही हो गया और 11 वर्ष की छोटी आयु में ये विधवा हो गई। बाद में गाँधी विचारधारा रखने वाले नेता लादूराम जोशी से पुनर्विवाह हुआ। विवाह के बाद इन्होंने खादी पहनना प्रारम्भ कर दिया तथा नौकरी छोड़ पति के साथ राजस्थान सेवा संघ का कार्य किया। बिजौलिया आंदोलन के समय पंडित लादूलाल जोशी की पत्नी रमा देवी 1931 ई. में बिजौलिया गई, जहाँ उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें वहाँ से निकल जाने को कहा, किन्तु उनका जवाब था, 'जब तक किसानों पर अत्याचार बन्द नहीं होंगे, वे यहाँ आती रहेंगी।' इन्हें वहाँ के कोतवाल ने अपमानित किया, पिटाई की, किन्तु वे दृढ़ रहीं। 1930 ई. व 1932 ई. में सत्याग्रह एवं सविनय अवज्ञा आन्दोलन में उन्होंने भाग लिया और जेल भी गईं।

कालीबाई, डूंगरपुर :

डूंगरपुर जिले के गांव रास्तापाल की निवासी भील, कन्या कालीबाई रास्तापाल की पाठशाला में पढ़ती थी। जून 1947 में डूंगरपुर महारावल के फरमान के बावजूद जब रास्तापाल की पाठशाला बन्द नहीं की गई, तो पुलिस सुपरिण्टेडेण्ट एवं मजिस्ट्रेट दल-बल सहित पाठशाला बन्द कराने पहुंचे। जब पुलिस ने पाठशाला बन्द कर इसकी चाबी उनके सुपुर्द करने का आदेश दिया तो प्रजामण्डल कार्यकर्ता नानाभाई खांट ने मना कर दिया। इस पर सिपाहियों ने नानाभाई खांट की पिटाई कर अध्यापक सेंगाभाई को ट्रक से बांधकर घसीटना शुरू कर दिया।

तेरह वर्षीया भील कालीबाई, जो अपने खेत में घास काटकर लौट रही थी, जब उसने अपने गुरू सेंगाभाई को ट्रक के पीछे घिसटते देखा, तो वह भीड़ को चीरती हुई ट्रक के पीछे दौड़ पड़ी, और चिल्लाने लगी, 'मेरे गुरुजी को कहां ले जा रहे हो?' ट्रक को रुकते देखकर उसने सिपाहियों की चेतावनी की परवाह किए बिना दरांती से सेंगा भाई के कमर से बंधी रस्सी काट दी, मगर तभी पुलिस की गोलियों ने कालीबाई को छलनी कर दिया (18 जून, 1947)। अंत में अपने गुरु को बचाने के प्रयास में काली बाई ने 20 जून, 1947 ई. को दम तोड़ दिया। रास्तापाल में इसकी स्मृति में एक स्मारक बना हुआ है।

किशोरी देवी :

सरदार हरलाल सिंह की पत्नी किशोरी देवी ने अपने पति के साथ मिलकर शेखावटी क्षेत्र में जागीर प्रथा के विरोध में राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लिया। सिहोट के ठाकुर मानसिंह द्वारा सोतिया का बास नामक गाँव में किसान महिलाओं के साथ किये गये दुव्यर्वहार के विरोध में सीकर जिले के कटराथल नामक स्थान पर किशोरी देवी की अध्यक्षता में एक विशाल महिला सम्मेलन 1934 ई. में आयोजित किया गया जिसमें क्षेत्र की लगभग 10,000 महिलाओं ने भाग लिया।

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