राजस्थान में ब्रिटिश सरकार के आधिपत्य की स्थापना के पश्चात् यहाँ आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियों में परिवर्तन आया। शासक अंग्रेजी संरक्षण के कारण स्वयं को सुरक्षित मानने लगे तथा अपनी किसान जनता के प्रति निरंकुश होने लगे। साथ ही अंग्रेजों की नीतियों के कारण कुटीर उद्योग धंधे बर्बाद होने लगे तथा भूमि पर आश्रित जनसंख्या का प्रतिशत बढ़ने लगा। इस प्रकार अब किसानों में असंतोष बढ़ता गया, जिसका परिणाम विभिन्न किसान आंदोलनों के रूप में सामने आया।
बिजौलिया आन्दोलन :
बिजौलिया जो वर्तमान में भीलवाड़ा जिले में स्थित है, मेवाड़ राज्य में प्रथम श्रेणी का ठिकाना था। इस जागीर की भौगोलिक बनावट इस प्रकार थी कि यहाँ के किसान आन्दोलन के समय बड़ी सुगमता से पड़ोसी सीमावर्ती राज्यों में पलायन कर सकते थे। यहाँ के अधिकांश लोगों का जीवन निर्वाह कृषि पर आधारित था। कृषकों में अधिकांश धाकड़ जाति के लोग थे। वे अपने परिश्रम और दक्षता के लिए प्रसिद्ध थे। जाति के रूप में वे संगठित थे तथा पंचायत व्यवस्था में उनकी दृढ़ निष्ठा थी। 1894 ई. में राव गोविन्ददास की मृत्यु के बाद बिजौलिया ठिकाने के जागीरदारों व किसानों के संबंधों में विभिन्न कारणों से कटुता आई, जिसका परिणाम था बिजौलिया किसान आन्दोलन।
बिजौलिया किसान आन्दोलन का अध्ययन तीन भागों में किया जा सकता है प्रथम चरण 1897 ई. से 1915 ई. तक का था। इस काल में आन्दोलन का नेतृत्व स्थानीय लोगों द्वारा किया गया। आन्दोलन का द्वितीय चरण 1915 ई. से आरम्भ हुआ, जो 1923 ई. तक चला। आन्दोलन का यह काल अत्यन्त महत्वपूर्ण था। इस काल में आन्दोलन का संचालन राष्ट्रीय स्तर के योग्य व अनुभवी व्यक्तियों द्वारा सम्पन्न हुआ। अब यह आन्दोलन राष्ट्रीय मुख्यधारा से जुड़ गया था। तीसरा चरण आन्दोलन का पराभव काल था, जो 1941 ई. में समाप्त हुआ।
1897 ई. में बिजौलिया ठिकाने के हजारों किसान एक मृत्यु-भोज के अवसर पर गिरधरपुरा गांव में एकत्रित हुए। यहाँ ठिकाने के अत्याचार व शोषण से संतप्त किसानों ने एक दूसरे से विचार-विमर्श किया और निर्णय लिया कि उनके प्रतिनिधि उदयपुर जाकर महाराणा फतहसिंह से भेंट कर न्याय के लिए पुकार करें किंतु इस पुकार का कोई परिणाम नहीं निकला।
रियासती सरकार द्वारा अपनाई गई निष्क्रियता व उदासीनता से बिजौलिया के शासक को किसान विरोधी नीति अपनाने के लिए प्रोत्साहन मिला। बिजौलिया जागीर का किसान पहले से ही विभिन्न प्रकार की लागों की बोझ से दबा हुआ था। अब 1903 ई. में राव कृष्णसिंह ने बिजौलिया अंचल में एक नया कर चॅवरी नाम से लगा दिया। हर व्यक्ति को अपनी लड़की के विवाह के अवसर पर 13 रुपये (कुछ साक्ष्यों में पाँच रुपये लेना लिखा है) ठिकाने में जमा करवाना पड़ता था। फिर वर के लिए राव साहब के समक्ष उपस्थित होकर नतमस्तक हो आशीर्वाद प्राप्त करना आवश्यक था। इस अपमानजनक कर के लागू करने पर किसानों में रोष व्याप्त होना स्वाभाविक था। किसानों ने इसका मूक विरोध किया। उन्होंने 2 वर्षों तक अपनी कन्याओं का विवाह ही नहीं किया। इसके बाद राव ने कुछ नाममात्र रियायतें दी, किन्तु संतुष्ट हाने के बजाय किसानों को अपनी शक्ति का अहसास अवश्य हुआ।
1906 ई. में राव कृष्णसिंह का निःसन्तान देहांत हो गया। उसके स्थान पर उसका निकट का सम्बंधी पृथ्वीसिंह बिजौलिया का स्वामी बना। उसने मेवाड़ राज्य द्वारा नये जागीरदार से तलवार बँधाई के रूप में ली गई रकम का भार जनता पर डाल दिया। किसानों ने जब इसका विरोध किया, तो स्थानीय शासक ने किसान आन्दोलन से जुड़े व्यक्तियों के विरुद्ध सख्ती का रुख अपनाया और दमनकारी नीति का अनुसरण किया। किसान नेता साधु सीतारामदास को ठिकाने के पुस्तकालय से सेवामुक्त कर दिया गया। अन्य किसान नेताओं को जेल में डाल दिया।
1914 ई. में राव पृथ्वीसिंह का देहांत हो गया और उसका पुत्र केसरी सिंह अल्पवयस्क था, इसलिए जागीरी प्रशासन कोर्ट ऑफ वार्ड्स (महाराणा) के नियंत्रण में चला गया। किंतु किसानों को फिर भी कोई खास फायदा न हुआ, उनके हालात जस के तस थे। इन हालात में इस प्रकार इस आंदोलन का प्रथम चरण पूरा होता है।
इस आंदोलन का दूसरा चरण प्रारम्भ होता है, जब 1916 में विजय सिंह पथिक (वास्तविक नाम भूपसिंह) इस आंदोलन से जुड़ते है। विजयसिंह पथिक में कार्य करने की अपूर्व क्षमता थी। सर्वप्रथम उन्होंने किसानों को सुनियोजित रूप से संगठित किया तथा आन्दोलन को व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने बिजौलिया में विद्या प्रचारिणी सभा का गठन किया, जिसके तत्वावधान में एक पुस्तकालय, एक पाठशाला और एक अखाड़ा चालू किया। ये राजनीतिक गतिविधियों के केन्द्र बन गए। माणिक्यलाल वर्मा, जो इस समय बिजौलिया ठिकाने में एक कर्मचारी के पद पर कार्यरत थे, पथिक के सम्पर्क में आए, उन्होंने पथिक से प्रभावित होकर ठिकाने की नौकरी से अवकाश ले लिया। उन्होंने पथिक से आजीवन देश सेवा की दीक्षा ली और पथिक के साथ किसानों को संगठित करने के कार्य में जुट गए। इस कार्य में साधु सीतारामदास का भी पथिक को बड़ा सहयोग रहा। विजयसिंह पथिक ऊपरमाल क्षेत्र में अत्यधिक लोकप्रिय हो गए थे। वहाँ के निवासी उन्हें महात्माजी कहकर सम्बोधित करते थे। उनके आदेशों का पालन करने के लिए वे सदैव तैयार रहते थे। पथिक किसानों की दुर्दशा से परिचित हो चुके थे। इस भयावह स्थिति के निवारण हेतु पथिक ने किसान आन्दोलन को सक्रिय बनाने का निर्णय लिया और 1917 ई. में हरियाली अमावस्या के दिन ऊपरमाल पंच बोर्ड के तत्वावधान में क्रान्ति का बिगुल बजाया।
पथिक ने किसानों को युद्ध का चंदा नहीं देने के लिए आह्वान किया। किसानों ने घोषणा की कि वे बेगार नहीं करेंगे। गोविन्द निवास गाँव के नारायणजी पटेल ने ठिकाने में बेगार करने से इन्कार कर दिया। इस पर ठिकाने के कर्मचारियों ने उसे पकड़ लिया और कैद में डाल दिया। इसकी सूचना मिलने पर किसान-पंचायत के आदेशानुसार किसानों के जत्थे बिजौलिया पहुँचने लगे। ठिकाने के प्रशासक भयभीत हो गए। उन्होंने नारायणजी पटेल को जेल से मुक्त कर दिया। किसानों की यह प्रथम विजय थी।
पथिक ने बिजौलिया किसान आन्दोलन को राष्ट्रीय स्तर पर लाने व सहयोग दिलवाने के उद्देश्य से 'प्रताप' समाचार-पत्र के सम्पादक गणेश शंकर विद्यार्थी से सम्पर्क स्थापित किया। उन्होंने अपने पत्र 'प्रताप' में बिजौलिया आन्दोलन सम्बन्धी समाचार देने के लिए एक स्थायी स्तम्भ ही खोल दिया। इस प्रचार के फलस्वरूप देशवासियों का बिजौलिया किसान आन्दोलन की ओर ध्यान आकर्षित हुआ।
महात्मा गाँधी ने बिजौलिया किसान आन्दोलन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से पथिक को बम्बई आमंत्रित किया था। पथिक ने बिजौलिया के किसानों पर किए जा रहे अत्याचारों का विवरण गाँधीजी के समक्ष प्रस्तुत किया, जिससे गाँधीजी प्रभावित हुए। गाँधीजी ने अपने निजी सचिव महादेव भाई को ऊपरमाल के किसानों की स्थिति की जाँच करने बिजौलिया भेजा। गाँधीजी ने इस आशय का एक पत्र महाराणा को भी लिखा था। गाँधीजी ने बिजौलिया किसान आन्दोलन के प्रति नैतिक समर्थन दिया।
प्रारम्भ में ब्रिटिश सरकार बिजौलिया के आन्दोलनकारी किसानों को रियायतें देने के पक्ष में नहीं थी। शनैः शनैः स्थिति में परिवर्तन आने लगा। अगस्त, 1920 ई. में भारत में महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन आरम्भ हुआ, जो 1921 ई. में भयंकर रूप ले चुका था।
ऐसी स्थिति में ब्रिटिश सरकार ने निश्चय किया कि बिजौलिया किसान आन्दोलन को तुरन्त शान्त किया जाए। इस उद्देश्य से ब्रिटिश सरकार ने एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया, जिसमें ए.जी.जी. रॉबर्ट हॉलैंड, उसके सचिव आगल्वी, मेवाड़ के ब्रिटिश रेजीडेन्ट विल्किसन, मेवाड़ राज्य के दीवान प्रभाषचन्द्र चटर्जी और राज्य के सायर हाकिम बिहारीलाल को रखा। लम्बे विचार-विमर्श के पश्चात् 11 फरवरी, 1922 ई. को ठिकाने और किसान पंचायत के बीच समझौता सम्पन्न हुआ।
ए.जी.जी. हॉलैंड ने किसानों के पक्ष के औचित्य को स्वीकारा था। समझौते के अनुसार किसानों को अनेक रियायतें दी गई थी। लगभग 35 लागें समाप्त कर दी गई। इस प्रकार, 1922 ई. में आन्दोलन समाप्त हुआ।
असहयोग आन्दोलन के समाप्त होते ही ए.जी.जी. किसानों के साथ हुए समझौते के प्रति उदासीन हो गया और बिजौलिया के जागीरदार ने समझौते का उल्लंघन करते हुए किसानों पर पुनः नई लागें लगा दी और लगान की माँग भी बढ़ा दी। 1923-26 का समय किसानों ने बड़ी तकलीफ में गुजारा। मार्च, 1927 ई. में किसान पंचायत हुई, जिसमें रामनारायण चौधरी और माणिक्यलाल वर्मा भी उपस्थित हुए। पथिक ने किसानों को बारानी भूमि छोड़ने तथा अहिंसात्मक साधनों से आन्दोलन को जारी रखने का सुझाव दिया, किंतु यह प्रयोग असफल रहा।
20 जुलाई, 1931 ई. को सेठ जमनालाल बजाज ने उदयपुर में महाराणा तथा सर सुखदेव प्रसाद से व्यापक विचार विमर्श किया, जिसके फलस्वरूप समझौता हो गया। हालांकि उदयपुर ने इसका पालन न किया, किंतु जब मेवाड़ प्रजामंडल आंदोलन का व्यापक प्रसार हो रहा था, तो इस भय से कि किसान प्रजामंडल से न जुड़ जाएँ, कुछ पहल आवश्यक थी। 1941 ई. में मेवाड़ के दीवान टी. विजय राघवाचार्य ने राजस्व मन्त्री डॉ. मोहनसिंह मेहता को बिजौलिया भेजा, जिन्होंने किसान नेताओं व अन्य नेताओं से बातचीत कर किसानों की समस्या का समाधान करवाया। किसानों को उनकी जमीनें वापस दे दी गई। इस प्रकार यह आन्दोलन समाप्त हुआ।
बेगूं किसान आंदोलन, मेवाड़ (1921 ई.):
बिजौलिया आंदोलन से प्रेरणा पाकर बेगूं (मेवाड़) के किसानों ने भी अनावाश्यक व अत्यधिक करों, लाग-बाग, बैठ-बेगार व सामन्ती जुल्मों के विरुद्ध रामनारायण चौधरी के नेतृत्व में 1921 ई. में आंदोलन शुरू किया। बेगूं के किसान 1921 ई. में मैनाल के भैरूकुण्ड नामक स्थान पर एकत्रित हुए। सामन्ती दमन चक्र चलता रहा, 1923 ई. में किसानों के प्रमुख रूपाजी व कृपाजी धाकड़ सेना की गोलाबारी से शहीद भी हुए, लेकिन किसान अपनी मांगों के लिए जूझते रहे। यद्यपि बेगूं के ठिकानेदार ने कृषकों से समझौता करने का प्रयास भी किया, लेकिन उसे अमान्य कर बेंगू आंदोलन को बुरी तरह से कुचला गया। किंतु मेवाड़ सरकार आंदोलन को दबा नहीं सकी। बेगूं के ठाकुर अनूपसिंह एंव राजस्थान सेवा संघ के मध्य जो समझौता हुआ, जिसे 'बोल्शेविक समझौते' की संज्ञा दी गई।
भरतपुर किसान आंदोलन :
भरतपुर राज्य में किसानों की दशा अच्छी थी। यहाँ 95 प्रतिशत भूमि सीधे राज्य के नियंत्रण में थी। यहाँ 5 जातियां ब्राह्मण, जाट, गुर्जर, अहीर एवं मेव कमोबेश समान हैसियत रखती थीं। भरतपुर राज्य में 1931 में नया भूमि बन्दोबस्त लागू किया गया जिससे भू-राजस्व में वृद्धि हो गई। भू-राजस्व अधिकारी लम्बरदारों ने इस बढ़े हुए भू-राजस्व के विरोध में आंदोलन शुरू किया।
जब राज्य ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया तो 23 नवम्बर, 1931 को 'भोजी लम्बरदार' के नेतृत्व में 500 किसान भरतपुर में एकत्रित हुए। भोजी लम्बरदार ने राज्य के विरुद्ध भड़काऊ भाषण दिए। नवम्बर, 1931 में 'भोजी लम्बरदार' को गिरफ्तार कर लिया गया जिससे यह आंदोलन समाप्त हो गया।
मेव किसान आंदोलन :
अलवर, भरतपुर क्षेत्र में मोहम्मद हादी ने 1932 ई. में 'अन्जुमन खादिम उल इस्लाम' नामक संस्था स्थापित कर मेव किसान आंदोलन को एक संगठित रूप दिया। अलवर के मेव किसान आंदोलन का नेतृत्व गुडगांव के 'चौधरी यासीन खान' द्वारा किया गया। इसके नेतृत्व में किसानों ने खरीफ फसल का लगान देना बंद कर दिया। राज्य सरकार ने मेवों को संतुष्ट करने के लिए राज्य कॉन्सिल में एक मुस्लिम सदस्य खान बहादुर काजी अजीजुद्दीन बिलग्रामी को सम्मिलित कर लिया। इसके बावजूद आंदोलन न केवल तेज हुआ, बल्कि उग्र भी हो गया। 1937 में मि. बिलग्रामी के मातहत मेव संकट की जांच हेतु एक विशेष समिति का गठन किया गया। इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर मेवों को भू-राजस्व तथा अन्य करों में छूट के साथ-साथ सामाजिक व धार्मिक समस्याओं का समाधान भी किया गया।
अलवर किसान आंदोलन एवं नीमूचाणा हत्याकाण्ड (1921-1925):
अलवर रियासत में जंगली सुअरों को अनाज खिला कर रोधों में पाला जाता था। ये सुअर किसानों की खड़ी फसल बर्बाद कर देते थे। उनकों मारने पर भी रियासती सरकार ने पाबंदी लगा रखी थी। सुअरों की समस्या के निराकरण हेतु किसानों ने 1921 में आंदोलन शुरू किया। अंततः सरकार ने समझौता कर किसानों, को सुअर मारने की इजाजत दे दी। 1923-24 में अलवर महाराजा जयसिंह ने लगान की दरों को बढ़ा दिया। विरोधस्वरूप 14 मई, 1925 को लगभग 800 किसान अलवर के नीमूचाणा गांव में एकत्र हुए। उस सभा पर सैनिक बलों ने मशीनगनों से अंधाधुंध फायरिंग की, जिससे सैकड़ों लोग मारे गए। महात्मा गांधी ने इस कांड को 'जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड से भी वीभत्स' बताया और उसे डायरवाद गहरा एवं व्यापक की संज्ञा दी। अंततः सरकार को लगान के बारे में किसानों के समक्ष झुकना पड़ा, और आंदोलन समाप्त हुआ।
बूंदी राज्य में किसान आन्दोलन :
बिजौलिया और बेगूं के किसानों के समान बूंदी राज्य के किसानों को भी अनेक प्रकार की लागें (लगभग 25), बेगार और ऊँची दरों पर लगान की रकम देनी पड़ रही थी। बिजौलिया और बेगूं के किसानों के आन्दोलन से वे अत्यधिक प्रभावित हुए थे। परिणामतः अप्रैल, 1922 ई. में बिजौलिया की सीमा से जुड़े बून्दी राज्य के बरड़ क्षेत्र के किसानों ने बून्दी प्रशासन के विरुद्ध आन्दोलन आरम्भ कर दिया। इस आन्दोलन का नेतृत्व राजस्थान सेवा संघ के कर्मठ कार्यकर्ता नैनूराम के हाथों में था।
बूंदी राज्य ने इन किसानों पर अत्याचार प्रारम्भ कर दिए। राजस्थान सेवा संघ के माध्यम से बून्दी राज्य में चल रहे दमनचक्र की सर्वत्र निन्दा की गई। 2 अप्रैल, 1923 ई. को डाबी गांव में किसानों की एक सभा हुई। सभा में एकत्रित किसानों की भीड़ पर पुलिस ने निष्ठुरता से लाठी प्रहार किया तथा गोलियां चलाई, जिसके परिणामस्वरूप नानक भील और देवलाल गुर्जर शहीद हुए। बून्दी राज्य की इस घटना की सर्वत्र निन्दा की गई। बून्दी सरकार ने किसानों की कुछ शिकायतों का निवारण किया और लाग-बाग और बेगार में कुछ रियायतें दी। किसान आन्दोलनकारी राज्य की ओर से दी गई रियायतों से पूर्णतया सन्तुष्ट तो नहीं थे, परन्तु वे अपने आन्दोलन को आगे चलाने की स्थिति में भी नहीं थे, क्योंकि अब उन्हें राजस्थान सेवा संघ से मार्गदर्शन मिलना बन्द हो गया था। 1923 ई. के अन्त तक आन्दोलन प्रायः समाप्त हो गया। 1936 ई. में एक बार फिर बरड़ क्षेत्र में आन्दोलन का दौर चालू हुआ।
5 अक्टूबर, 1936 ई. की हिन्डोली में स्थित हूडेश्वर महादेव के मन्दिर में 90 गाँवों के गुर्जर मीणा किसानों के 500 प्रतिनिधियों का एक विराट सम्मेलन हुआ, जहाँ उन्होंने एक माँग-पत्र तैयार किया और उसे सरकार को प्रेषित किया। सरकार ने उनकी मांगों पर ध्यान नहीं दिया। किसानों ने राज्य के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया, जो लम्बे समय तक चला। अन्ततः सरकार ने चराई करों में कुछ छूट दी और युद्ध ऋण की वसूली में शक्ति का प्रयोग बन्द कर दिया। आन्दोलन के समय जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया उन्हें छोड़ दिया गया। इस प्रकार यह आन्दोलन समाप्त हो गया।
जयपुर राज्य में किसान आन्दोलन :
राजस्थान के अन्य राज्यों के किसानों की भाँति जयपुर राज्य के किसानों की स्थिति भी बड़ी दयनीय थी। वे अपने शासकों के आतंक, अत्याचार और शोषण से उत्पीड़ित थे। जयपुर रियासत में किसान आन्दोलन का मूल केन्द्र राज्य के पश्चिमी भाग में स्थित शेखावटी, तोरावटी, साँभर, सीकर और खेतड़ी के ठिकाने थे। किसान आन्दोलन का श्रीगणेश सीकर ठिकाने में हुआ।
1922 ई. में सीकर के नये रावराजा कल्याणसिंह ने भूमिकर में 25 से 50 प्रतिशत की वृद्धि कर दी। उसने किसानों को आश्वासन दिया था कि अगले वर्ष उनसे ली जा रही लागों में छूट दे दी जाएगी। रावराजा ने अपने वचन का पालन नहीं किया। इससे किसान खिन्न हो गए व आंदोलन प्रारम्भ कर दिया।
रामनारायण चौधरी और हरि ब्रह्मचारी के सीकर आने से किसान आन्दोलन को प्रोत्साहन मिला। सीकर आन्दोलन की गूंज केन्द्रीय असेम्बली एवं ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमंस में उठी। ब्रिटिश सरकार ने रावराजा को सलाह दी कि वह अपने ठिकाने में नियमित रूप से भूमि बन्दोबस्त की व्यवस्था करे। रावराजा ने ठिकाने में भूमि बन्दोबस्त करवाने के पूर्व भूमि का सर्वेक्षण करवाया, जिसमें छोटी जरीब का उपयोग किया गया था। सीकर के रावराजा ने 'इजाफा' के नाम पर बीघा भूमि पर दो आना भूमिकर में वृद्धि कर दी।
जरीब की लम्बाई के मामले को लेकर तथा भूमिकर में की गई वृद्धि के कारण किसानों में पुनः असन्तोष बढ़ने लगा। अक्टूबर, 1925 ई. में जाट सभा का बगड़ (शेखावटी) में एक अधिवेशन आयोजित हुआ, जिसमें राज्य और जागीरदारों द्वारा जाटों पर किए जा रहे सामाजिक और आर्थिक शोषण के विरुद्ध अभियान चलाने सम्बन्धी कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करने का निर्णय लिया गया। जाट नेताओं ने शेखावाटी के गाँवों में पहुँचकर कृषकों से सम्बन्ध स्थापित कर उन्हें ठिकानेदारों को भूमि लगान न देने के लिए समझाया। भतरपुर के जाट नेता देशराज ने सीकर और शेखावटी के जाट किसानों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने को प्रेरित किया और उनमें एक नयी चेतना उत्पन्न की।
1932 ई. में वसन्त पंचमी के पर्व के अवसर पर झुंझुनूं में जाट महासभा के तत्वावधान में भव्य समारोह हुआ। इस समारोह में 60 हजार जाट किसानों ने भाग लिया था। इससे किसान आन्दोलन को प्रोत्साहन मिला। जाटों को संगठित करने के उद्देश्य से देशराज ने सितम्बर, 1933 ई. में पलथाना में एक सभा का आयोजन किया, जिसमें सीकर में एक महायज्ञ करने का निर्णय लिया गया।
रावराजा ने महायज्ञ के अध्यक्ष की सवारी के लिए हाथी देने से इन्कार कर दिया। किसानों और शासकों के बीच तनाव उत्पन्न हो गया था। महायज्ञ के समय (जनवरी, 1934) किसानों द्वारा दिये गये भाषणों में ठिकाने की नीति की कटु आलोचना की गई थी। इससे खिन्न होकर ठिकाने के रावराजा ने जाट सभा के सचिव चन्द्रभान को गिरफ्तार कर उसे छः सप्ताह की जेल तथा 51 रुपये जुर्माने का दण्ड दिया। जाटों ने इसका कड़ा विरोध किया। सिहोट के ठाकुर मानसिंह द्वारा सोतिया का बास नामक गांव में किसान महिलाओं के साथ किए गए दुर्व्यवहार के विरोध में 25 अप्रैल, 1934 ई. को जाट महिलाओं ने एक सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें दस हजार स्त्रियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन की अध्यक्षता किशोरी देवी ने की थी।
अप्रैल, 1935 ई. में सीकर ठिकाने का राजस्व अधिकारी पुलिस की सहायता से कूदन ग्राम में भूमि लगान वसूल करने पहुँचा। उस समय जाट किसानों में हिंसा भड़क उठी। पुलिस ने गोली चला दी, जिससे चार जाट मारे गए और 14 किसान घायल हुए। शहीद होने वाले किसान थे चेतराम, टीकूराम तथा लगभग 175 जाट किसान गिरफ्तार कर लिए गए। इस हत्याकांड की गूँज ब्रिटिश संसद में भी सुनाई दी। इससे मजबूर होकर जयपुर के महाराजा को इस ओर ध्यान देना पड़ा।
आतंककारी साधन अपनाने के बावजूद जाट आन्दोलन को कुचला नहीं जा सका। अन्ततः सीकर ठिकाने को नियमित भूमि सर्वेक्षण तथा बन्दोबस्त का कार्य आरम्भ करना पड़ा तथा किसानों की कतिपय माँगों को स्वीकार करना पड़ा। इस आंदोलन के लिए किसानों को संगठित होने के लिए प्रेरणा देने वाली महिला धापी दादी थी। वहीं इस आंदोलन का नेतृत्व करने वाले प्रमुख किसान नेता थे सरदार हरलाल सिंह, नेतराम सिंह, पृथ्वीसिंह गोठड़ा, पन्ने सिंह बाटड़ानाउ, हरूसिंह पलथाना, गौरूसिंह कटराथल, ईश्वरसिंह भैरूपुरा, लेखराम कसवाली आदि ।
इस बीच शेखावटी के अन्य ठिकानों में भी जाट आन्दोलन फैल गया। मार्च, 1933 ई. में खेतड़ी, डूंडलोद, नवलगढ़, मण्डावा, बिसाऊ, सूरजगढ़, हमीरवास, इस्माइलपुर, जखारा, मलसीसर, अलसीसर, पाटन आदि ठिकानों में भी जाटों ने भूमि कर देने से मना कर दिया। 16 मई, 1934 ई. को हमीरवास के ठाकुर कल्याणसिंह के आदमियों ने हनुमानपुरा ग्राम के जाट किसानों के घरों में आग लगा दी, जिससे 33 घर जलकर राख हो गए। इसी प्रकार डूंडलोद के ठाकुर ने जयसिंहपुरा गाँव के किसानों को आतंकित किया तथा उसके भाई हरनाथसिंह ने सशस्त्र व्यक्तियों के साथ किसानों पर लाठियों व तलवारों से वार कर जाट किसानों को घायल कर दिया। जागीरदारों की इन हरकतों से शेखावाटी के किसानों ने सशस्त्र संगठित होकर उनका डटकर मुकाबला किया। शेखावटी जाट किसान पंचायत की तरफ से 9 अक्टूबर, 1934 को जयपुर महाराजा को माँग-पत्र प्रेषित किया गया और प्रार्थना की कि जागीरदारों के आतंक से उन्हें मुक्त कराएँ। शेखावटी के नाजिम ने भी अपनी रिपोर्ट राज्य सरकार को प्रेषित की। नाजिम ने किसानों की शिकायतों की पुष्टि की और उनके समाधान के लिए सुझाव दिया। परिणामतः 1936 ई. में ठिकाने में भूमि सर्वेक्षण और भूमि बन्दोबस्त की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई, जिससे शेखावटी व सीकर क्षेत्र में कुछ शान्ति हुई।
सीकर व शेखावटी के दीर्घकालीन किसान संघर्ष का अन्त मार्च, 1947 ई. में जयुपर में हीरालाल शास्त्री के नेतृत्व में लोकप्रिय सरकार के गठन हो जाने के साथ ही हुआ। राजस्व मंत्री टीकाराम पालीवाल ने गैर-खालसा क्षेत्र में भूमि बन्दोबस्त करवाने की व्यवस्था की।
मारवाड़ किसान आंदोलन :
जयपुर राज्य के शेखावटी के जाट आन्दोलन का प्रभाव मारवाड़ राज्य के डीडवाना और साँभर परगनों तथा शेखावटी से लगे क्षेत्र के जाटों पर भी पड़ा। मई, 1938 ई. में मारवाड़ लोक परिषद की स्थापना हुई। मारवाड़ लोक परिषद ने किसानों की माँगों का जोरदार समर्थन किया तथा सरकार की कटु आलोचना की। जागीरदारों ने किसान आन्दोलन के लिए लोक परिषद के नेताओं को उत्तरदायी ठहराया, इसलिए उन्होंने परिषद के कार्यकर्त्ताओं के प्रति कड़ाई व पाशविक दृष्टिकोण अपनाया।
28 मार्च, 1942 ई. को लोक परिषद के कार्यकर्ताओं ने चंद्रावल गांव में उत्तरदायी शासन दिवस मनाने का निर्णय लिया। चन्द्रावल के ठाकुर ने मारवाड़ लोक परिषद के कार्यकर्ताओं को ऐसा करने के लिए रोकने हेतु अपने आदमी भेजे, जिन्होंने परिषद के कार्यकर्ताओं पर लाठी व तेज धार वाले हथियारों से प्रहार किया, जिससे 25 व्यक्तियों को गहरी चोटें आई। सोजत के मीठालाल और विजयशंकर, कंटालिया के मार्कन्डेश्वर और हरिराम, चंद्रावल के रामसुख और चाँदमल भयंकर रूप से घायल हुए।
13 मार्च, 1947 को डाबड़ा (डीडवाना परगना) गाँव की किसान सभा और लोक परिषद की ओर से एक किसान सम्मेलन बुलाया गया था। लोक परिषद के नेता मथुरादास माथुर, द्वारकादास पुरोहित, राधाकिशन बोहरा, किशनलाल शाह, नरसिंह कच्छवाह, बंशीधर पुरोहित, हरीन्द्र कुमार चौधरी, सी.आर. चौपासनीवाला आदि भाग लेने डाबड़ा पहुँचे, और वे स्थानीय नेता मोतीलाल चौधरी के निवास स्थान पर ठहरे। जागीरदारों ने पहले से ही किसान सम्मेलन को न होने देने के लिए तैयारी कर ली थी। जैसे ही लोक परिषद के कार्यकर्ता व नेता वहाँ पहुँचे, उन्होंने मोतीलाल के घर पर लाठियाँ व तेज धारवाले हथियारों से धावा बोल दिया और नेताओं की नृशंसतापूर्ण पिटाई की। मोतीलाल की माता के पैर काट दिए गए। उनके पिता और भाई को मार दिया गया। उनकी पत्नी के मुख को विरूप कर दिया गया। गाँव में चारों तरफ आतंक का वातावरण बन गया। डाबड़ा काण्ड की सर्वत्र निन्दा की गई।
बीकानेर किसान आंदोलन :
बीकानेर राज्य में कुल 2917 गाँव थे, जिनमें से 1393 गाँव जागीरी क्षेत्र में स्थित थे। सीमा से जुड़े सीकर क्षेत्र और शेखावटी के जाट आन्दोलनों का बीकानेर राज्य के जाट किसानों पर व्यापक रूप से प्रभाव पड़ा था। बीकानेर के अनेक जाट प्रतिनिधियों ने झुंझुनूं में आयोजित अखिल भारतीय जाट महासभा के अधिवेशन में तथा सीकर में 20 से 29 जनवरी, 1934 ई. के विशाल जाट प्रजापति महायज्ञ में सक्रिय रूप से भाग लिया था। इन घटनाओं के फलस्वरूप बीकानेर राज्य के जाटों में भी जागीरदारों के विरुद्ध आवाज उठाने का साहस उत्पन्न हुआ तथा उनमें राजनीतिक चेतना आई।
उस समय बीकानेर राज्य के जागीरी क्षेत्र में 37 लागें विद्यमान थी। किसानों से जागीरदार बेगार लेता था। 1937 ई. में उदरासर के किसानों ने लाग-बाग के विरुद्ध आवाज उठाई। उनके नेता जीवन चौधरी के आग्रह पर बीकानेर प्रजामंडल ने किसानों की शिकायतें राज्य सरकार के समक्ष रखीं, किंतु इसका कोई परिणाम नहीं निकला।
बीकानेर राज्य में किसान आन्दोलनों की श्रृंखला में दूधवाखारा गाँव (चूरू के पास) के आन्दोलन का भी एक विशिष्ट स्थान है। पुलिस ने यहाँ खुलकर अत्याचार किया था। किसान नेता हनुमानसिंह ने ठाकुर द्वारा किए जा रहे अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाई। वह पहले भादरा में महाराजा शार्दूलसिंह से मिला और बाद में अनेक साथियों के साथ वह महाराजा से मिलने माउण्ट आबू पहुँचा। महाराजा ने कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं दिया। जब वह आबू से लौट रहा था, तब रतनगढ़ में उसे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया (जून, 1945 ई.)।
हनुमानसिंह पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया और उसे पाँच वर्ष का कारावास दिया गया। उसने जेल में भूख हड़ताल की। स्वास्थ्य खराब हो जाने पर 10 अगस्त, 1945 ई. को हनुमानसिंह को जेल से मुक्त कर दिया गया। महाराजा ने उसे शान्त करने के लिए 100 मुरबा जमीन गंगानगर क्षेत्र में देने का प्रलोभन दिया था, परन्तु उसने इसे स्वीकार नहीं किया। जेल से मुक्त होकर भी वे लगातार संघर्ष करते रहे, और दो बार और जेल की यात्रा की। अन्ततोगत्वा बीकानेर राज्य में लोकप्रिय सरकार की स्थापना हुई, तब उन्हें जेल से मुक्त किया गया (4 जनवरी, 1948 ई.)। यद्यपि दूधवाखारा किसान आन्दोलन सफल नहीं रहा, तथापि इससे राजनीतिक चेतना का संचार हुआ। किसानों में आत्मविश्वास जाग्रत हुआ। वे अब अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाने लगे थे।
30 जून से 1 जुलाई, 1946 ई. को प्रजा परिषद ने रायसिंहनगर में एक राजनीतिक सभा का आयोजन किया। इस सभा पर पुलिस ने लाठियों से आक्रमण किया, जिससे अनेक कार्यकर्ता घायल हुए। उग्र भीड़ ने राजकीय विश्राम गृह को घेर लिया। भीड़ को हटाने के लिए पुलिस ने गोलियां चलाई जिसके परिणामस्वरूप बीरबलसिंह मारा गया। अखिल भारतीय देशी रियासत परिषद की ओर से हीरालाल शास्त्री, गोकुलभाई भट्ट और बीकानेर के रघुवरदयाल गोयल ने रायसिंहनगर कांड की समीक्षा की। हनुमानगढ़ में नियुक्त मुंसिफ मजिस्ट्रेट हरदत्तसिंह चौधरी ने राष्ट्रीय चेतना से प्रेरित होकर सरकारी नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया। उसने प्रजा परिषद की सदस्यता स्वीकार कर ली। 3 सितम्बर, 1946 ई. के गोगामेड़ी गाँव में एक विशाल किसान सभा का आयोजन किया गया था, जहाँ जागीर प्रथा के उन्मूलन के लिए नारा बुलन्द किया गया।
अक्टूबर, 1946 ई. में अकाल और सूखे के समय में भी काँगड़ के जागीरदार ने किसानों से पूरा लगान वसूल करना चाहा, जिसका कृषकों ने विरोध किया। कुछ किसान महाराजा को शिकायत करने के लिए बीकानेर पहुँचे। इससे जागीरदार आग-बबूला हो गया। किसानों पर अमानवीय अत्याचार किए गए। काँगड़-कांड की सर्वत्र निन्दा की गई। अन्ततः यह संघर्ष 1948 ई. में बीकानेर राज्य में लोकप्रिय मंत्रिमंडल का गठन होने के बाद ही समाप्त हुआ। बीकानेर के किसान आंदोलन के प्रमुख हस्ताक्षरों में एक कुम्भाराम आर्य भी हैं, जिन्होंने परम्परागत् लाग-बाग, बेगार को न देने का बिगुल बजाया। वे बीकानेर प्रजा परिषद से जुड़े रहे। उन्होंने "किसान यूनियन क्यों" पुस्तक भी लिखी। सामंती व्यवस्था के विरोध और किसानों के हित में उनका संघर्ष स्वतंत्रता के उपरांत भी जारी रहा।