लोक देवता - तेरहवीं सदी से राजस्थान में इस्लाम के प्रवेश एवं तुर्क आक्रमणों के कारण राजस्थान के जन-जीवन में एक नवीन परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। इस्लामी संस्कृति के प्रभावों तथा रूढ़िवाद और बाह्याडम्बर से उत्पन्न वातावरण में प्रबुद्ध मनीषियों की चिंतन-धारा मंदिरों और मूर्तियों की अपेक्षा ध्यान, मनन एवं नाम-स्मरण की दिशा की ओर प्रवाहित होने लगी।
इसी कालखंड में राजस्थान में कुछ ऐसे महान व्यक्तियों ने जन्म लिया, जिन्होंने अपने आचरण व दृढ़ता से समाज को एक नई राह दिखाई। आमजन ने इनकी दिखाई राह का न केवल अनुसरण किया, वरन इन्हें देवता तुल्य मानते हुए, इन्हें लोक देवता व लोक संत का दर्जा प्रदान किया। इस अध्याय में हम ऐसे ही कुछ महान व्यक्तित्वों का अध्ययन करेंगे।
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| राजस्थान के लोकदेवता और संत |
गोगाजी
गोगाजी का नाम राजस्थान के पांच पीरो में बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है।
पाबू, हरभू, रामदे, मांगलिया, मेहा। पांचू पीर पधारज्यो, गोगाजी जेहा ।।
इनके पिता का नाम जेवर और माता का नाम बाछल था। इन्हें गोरखनाथ व महमूद गजनवी के समकालीन माना जाता है।
गोगाजी का अपने मौसेरे भाइयों अरजन-सुर्जन के साथ सम्पत्ति का विवाद चल रहा था। अरजन-सुर्जन द्वारा मुसलमानों की फौज लाकर गोगाजी की गायों को घेर लेने के कारण इनका गोगाजी के साथ भीषण युद्ध हुआ। इसमें अरजन-सुर्जन के साथ गोगाजी भी वीरगति को प्राप्त हुए।
गोगाजी का जन्म स्थल ददेरवा शीर्ष मेड़ी तथा इनका समाधि स्थल धुरमेड़ी कहलाता है। गोगाजी की स्मृति में गोगामेड़ी (हनुमानगढ़) एवं समस्त राजस्थान में भाद्रपद कृष्ण नवमी गोगानवमी के रूप में मनायी जाती है। इस दिन गोगाजी की अश्वारोही भाला लिये योद्धा के प्रतीक रूप में अथवा सर्प के प्रतीक रूप में पूजा की जाती है। इनका पत्थर पर उत्कीर्ण सर्प मूर्तियुक्त पूजा स्थल प्रायः गाँवों में खेजड़ी के वृक्ष के नीचे होता है। मान्यता है कि गोगाजी को 'जाहिर पीर कहकर पूजने से सर्प दंश का विष प्रभावहीन हो जाता है। हिंदू 'नागराज' तो मुस्लिम 'गोगापीर' के रूप में इनकी पूजा करते हैं।
तेजाजी
वीर तेजा का जन्म खड़नाल (नागौर) ग्राम के ताहड़जी और रामकुंवरी के यहाँ माघ शुक्ल चतुर्दशी को 1073 ई. में हुआ था। जब तेजाजी अपनी पत्नी पेमल को लेने अपने ससुराल पनेर गये हुए थे, तब उसी दिन मेर लोग लाछा गूजरी की गायें चुरा कर ले गये। गूजरी की प्रार्थना पर वे गायों को मुक्त कराने जा ही रहे थे की रास्ते में इन्हें सुरसुरा नामक स्थान पर इन्हें एक सर्प मिला। तेजाजी ने सर्प को डसने से रोकते हुए वचन दिया कि वे गायों को मुक्त कराने के बाद स्वयं यहाँ आयेंगे। भीषण संघर्ष के बाद तेजाजी ने गायें मुक्त कराने में सफलता प्राप्त की।
परन्तु अत्यधिक घायल होने पर भी वे अपने वचन के अनुसार वापस सर्प के पास आये। पूरे शरीर पर घाव होने के कारण इन्होंने सर्प के डसने के लिए जिह्वा आगे कर दी। सर्प-दंश के कारण सुरसुरा (किशनगढ़) में भाद्रपद शुक्ल दशमी को इनकी मृत्यु हो गई। तेजा दशमी (भाद्रपद शुक्ल दशमी) के अवसर पर पंचमी से पूर्णिमा तक परबतसर (नागौर) में विशाल पशु-मेला लगता है।
तेजाजी भी गोगाजी की ही तरह नागों के देवता के रूप में पूजनीय है। तेजाजी को तलवार धारण किये घोड़े पर सवार योद्धा के रूप में दर्शाया जाता है, जिनकी जिह्वा को सर्प डस रहा है। मान्यता है कि यदि सर्प दंशित व्यक्ति के दायें पैर में तेजाजी की तांत (डोरी) बांध दी जाये तो उसे विष नहीं चढ़ता।
लोक देवताओं से संबंधित यह मान्यताएं व कथाएं अक्षरशः सत्य हों आवश्यक नहीं है, इनका मूल उद्देश्य इन कथाओं से जुड़ी शिक्षाओं, यथा-निर्बल की रक्षा, वचन का पालन आदि आमजन तक पहुँचाना रहा है।
पाबूजी
पाबूजी का जन्म धांधलजी राठौड़ के यहाँ 1239 ई. में कोलू में हुआ था। इतिहासकार मुहणौत नैणसी, महाकवि मोडजी आशिया तथा लोगों में प्रचलित मान्यता के अनुसार पाबूजी का जन्म वर्तमान बाड़मेर से आठ कोस आगे खारी खाबड़ के जूना नामक ग्राम में अप्सरा के गर्भ से हुआ।
पाबूजी का विवाह अमरकोट के सूरजमल सोढ़ा की पुत्री सोढ़ी के साथ हुआ था। विवाह के मध्य ही उनके प्रतिद्वंद्वी बहनोई जायल (नागौर) नरेश जींदराव खींची ने पूर्व वैर के कारण देवल चारणी की गायों को घेर लिया। देवल ने पाबूजी से गायों को छुड़ाने की प्रार्थना की। तीन फेरे लेने के पश्चात् चौथे फेरे से पूर्व ही वे देवल चारणी की केसर कालमी घोड़ी पर सवार होकर गायों की रक्षार्थ रवाना हो गये।
कड़े संघर्ष में 1276 ई. में पाबूजी अनेक साथियों सहित वीर-गति को प्राप्त हुए। वीरता, प्रतिज्ञापालन, त्याग, शरणागत वत्सलता एवं गौ-रक्षा हेतु बलिदान होने के कारण जनमानस इन्हें लोक देवता के रूप में पूजता है। इनका मुख्य पूजा स्थल कोलू (फलौदी) में है। जहाँ प्रतिवर्ष इनकी स्मृति में मेला लगता है। इनका प्रतीक चिह्न हाथ में भाला लिए अश्वारोही के रूप में प्रचलित है।
पाबूजी की ऊँटों के देवता के रूप में पूजा की जाती है। मारवाड़ में सर्वप्रथम ऊँट लाने का श्रेय पाबूजी को है। ऊँटों के स्वस्थ होने पर भोपे-भोपियों द्वारा 'पाबूजी की फड़' गाई जाती है। ग्रामीण जनमानस इन्हें लक्ष्मणजी का अवतार मानता है।
देवनारायण जी
देवनारायण बगड़ावत प्रमुख भोजा और सेदू गुर्जर के पुत्र थे, जिनका जन्म 1243 ई. के लगभग हुआ। इनके पिता इनके जन्म के पूर्व ही मिनाय के शासक से संघर्ष में अपने तेइस भाइयों सहित मारे गए थे। भिनाय शासक से इनकी रक्षा हेतु इनकी माँ सेढू इन्हें लेकर अपने पीहर मालवा चली गई। दस वर्ष की अल्पायु में वे पिता की मृत्यु का बदला लेने राजस्थान की ओर लौट रहे थे तो मार्ग में धारा नगरी में जयसिंह देव परमार की पुत्री पीपलदे से उन्होंने विवाह किया। कुछ समय बाद वे बदला लेने हेतु भिनाय पहुँचे। जहाँ गायों को लेकर भिनाय ठाकुर से हुए संघर्ष में देवजी ने उसे मौत के घाट उतार दिया।
इनका मुख्य पूजा स्थल आसींद (भीलवाड़ा) में है। जहाँ भाद्रपद शुक्ल सप्तमी को मेला लगता है। इनके मुख्य अनुयायी गूर्जर हैं, जो 'देवजी की फड़ तथा देवजी और बगड़ावतों से संबद्ध काव्य बगड़ावत के गायन द्वारा इनका यशोगान करते हैं। किंवदंती है कि हर रात तीन पहर गाये जाने पर यह छः माह में पूर्ण होता है।
मल्लीनाथजी
मल्लीनाथजी का जन्म मारवाड़ के रावल सलखा और जाणीदे के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में 1358 ई. में हुआ। पिता की मृत्यु के पश्चात् वे चाचा कान्हड़दे के यहाँ महेवा में शासन प्रबंध देखने लगे। चाचा कान्हड़देव की मृत्यु के बाद वे 1374 ई. में महेवा के स्वामी बन गए। राज्य विस्तार के क्रम में 1378 ई. में फिरोज तुगलक के मालवा के सूबेदार निजामुद्दीन की सेना को इन्होंने मार भगाया।
अपनी रानी रूपांदे की प्रेरणा से वे 1389 ई. में उगमसी भाटी के शिष्य बन गये और योग-साधना की दीक्षा प्राप्त की। किंवदन्तियों के अनुसार वे भविष्यद्रष्टा एवं देवताओं की तरह चमत्कार-प्राप्त सिद्ध पुरुष बन गए थे।
मल्लीनाथजी ने मारवाड़ के सारे संतों को एकत्र करके 1399 ई. में एक वृहत् हरि-कीर्तन आयोजित करवाया। इसी वर्ष चैत्र शुक्ल द्वितीया को इनका स्वर्गवास हो गया। लूनी नदी के तटवर्ती तिलवाड़ा (बाड़मेर) गाँव में इनका मंदिर है। जहाँ प्रतिवर्ष चैत्र कृष्ण एकादशी से चैत्र शुक्ल एकादशी तक विराट पशु-मेला लगता है। जोधपुर के पश्चिमी परगने का नामकरण इन्हीं के नाम पर मालानी किया गया था। इनकी आज भी मालानी (बाड़मेर) में अत्यधिक मान्यता है।
रामदेवजी
तंवर वंशीय अजमालजी और मैणादे के पुत्र रामदेवजी का जन्म बाड़मेर जिले की शिव तहसील के ऊँडूकासमेर गाँव में हुआ। इन्हें मल्लीनाथजी के समकालीन माना जाता है। बालपन मैं ही इन्होंने पोकरण क्षेत्र मल्लीनाथजी से प्राप्त करने के पश्चात् वहाँ भैरव नामक क्रूर व्यक्ति का अंत करके अराजकता एवं आतंक खत्म किया। इनका विवाह अमरकोट के दलजी सोढ़ा की पुत्री नेतलदे से हुआ था। अपनी भतीजी को पोकरण दहेज में दे देने के बाद इन्होंने रामदेवरा (रुणेचा) गाँव बसाया और वहीं 1458 ई. में भाद्रपद शुक्ल एकादशी को जीवित समाधि ले ली। यहाँ भाद्रपद शुक्ल द्वितीया को विशाल मेला लगता है। सांप्रदायिक सद्भाव इस मेले की मुख्य विशेषता है।
हिन्दू जहाँ श्रीकृष्ण के अवतार के रूप में इनकी आराधना करते हैं, वहीं मुसलमान 'रामसा-पीर' के रूप में रामदेवजी को पूजते हैं। सामान्यतः गाँवों में किसी वृक्ष के नीचे ऊँचे चबूतरे पर रामदेवजी के प्रतीक चिह्न 'पगलिये' स्थापित किये जाते है। ये स्थान 'थान' कहलाते हैं।
रामदेवजी द्वारा कामड़िया पंथ की स्थापना की गई। इस पंथ के अनुयायियों द्वारा रामदेवजी के मेले में तेरहताली नृत्य प्रस्तुत किया जाता है। रामदेवजी वीर होने के साथ-साथ समाज-सुधारक भी थे। इन्होंने जाति प्रथा, मूर्तिपूजा और तीर्थयात्रा का विरोध किया।
मेहोजी मांगळिया
मेहोजी मांगळिया राजस्थान के पंच पीरों में गिने जाते हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टॉड के अनुसार उनका जन्म गहलोत / गुहिल वंश की मांगळिया शाखा में हुआ था। इनके स्वाभिमानी स्वभाव के कारण इनके अनेक शत्रु हो गए थे। अंत में गायों के रक्षार्थ भाटियों से युद्ध करते हुए वे वीरगति को प्राप्त हुए। मेहोजी मांगळिया की वीरता की कहानियाँ आज भी मारवाड़ के कण-कण में व्याप्त हैं। लोगों की सेवा सहायता करने एवं उन्हें संरक्षण देने के मोजी मागळ्यिाजी कारण वे लोक देवता के रूप में पूजे जाते हैं। बापिणी (जोधपुर) में इनका मन्दिर है, जहाँ भाद्रपद कृष्णा अष्टमी को मेला भरता है।
हरभूजी
हरभूजी भेंडेल (नागौर) के महाराज सांखला के पुत्र और राव जोधा (1438-89 ई.) के समकालीन थे। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् वे भेंडेल छोड़कर हरभमजाल में आकर रहने लगे। यहाँ रामदेवजी की प्रेरणा से इन्होंने अस्त्र-शस्त्र त्यागकर उनके गुरु बालीनाथजी से दीक्षा ले ली। लोक मान्यता है कि राव जोधा को मेवाड़ के अधिकार से मण्डोर को मुक्त कराने के प्रयासो के दौरान इन्होंने आशीष के साथ एक कटार भी दी थी। इस सहायता व आशीर्वाद से जब यह भूभाग जोधा के अधीन आ गया तो जोधा ने इन्हें 'बेंगटी' गाँव प्रदान किया।
हरभूजी को बहुत बड़ा शकुन शास्त्री, वचनसिद्ध और चमत्कारी महापुरुष माना जाता था। इनका प्रमुख स्थान बेंगटी (फलौदी) में है। मनौती पूर्ण होने पर श्रद्धालु यहाँ इनके मंदिर में संस्थापित हरभूजी की गाडी' की पूजा अर्चना करते हैं।
क्या आप जानते है?
अकबर के चित्तौड़दुर्ग पर आक्रमण के समय अपूर्व वीरता व साहस दिखाने वाले कल्लाजी की मेवाड़ अंचल में चार हाथों वाले लोक देवता के रूप में प्रसिद्धि है। मान्यता है कि सिर कटने के बाद भी कल्लाजी का धड़ मुगलों से लड़ता हुआ रूण्डेला तक जा पहुँचा।
संत
धन्ना
राजस्थान में धार्मिक आंदोलन का श्रीगणेश करने का श्रेय धन्ना को ही है। धन्ना का जन्म टोंक जिले के धुवन गाँव में 1415 ई. में जाट परिवार में हुआ था। बाल्यकाल से ही इनकी प्रवृत्ति धार्मिक थी। कालांतर में धन्ना काशी जाकर आचार्य रामानन्द के शिष्य बन गए। गुरु रामानंद के प्रभाव से ये निर्गुण उपासक हो गये। गुरु रामानंद ने इन्हें घर पर रहकर ही भक्ति करने का आदेश दिया। इन्होंने अपने पैतृक व्यवसाय कृषि में रत रहते हुए ही आत्म शुद्धि का प्रयास किया।
धन्ना गुरु भक्ति में बड़ी निष्ठा रखते थे। इनका मत था कि गुरु भक्ति से ही परम पद की प्राप्ति हो सकती है। इन्होंने नाम स्मरण को ही ईश्वर प्राप्ति का प्रमुख साधन माना है तथा औपचारिकताओं और बाह्याडम्बरों का विरोध किया।
पीपा
खींची राजपूत पीपा गागरौन (झालावाड़) के शासक थे। इनका जन्म 1425 ई. में हुआ माना जाता है। कालोपरान्त पीपा काशी जाकर रामानन्द के शिष्य बन गए। धन्ना के समान ही इन्हें भी गृहस्थ जीवन में रहते हुए भक्ति का आदेश प्राप्त हुआ। पीपा के निवेदन पर आचार्य रामानन्द अपने शिष्यों सहित द्वारिका यात्रा पर जाते हुए गागरौन पधारे। तब पीपा भी राज्य त्यागकर छोटी रानी सीता सहित उनके संग हो लिए।
इसके पश्चात् घूमते हुए वे टोडा (टोंक) आये और वहाँ के शासक शूरसेन को, अपनी दौलत संतों में बांट देने पर अपना शिष्य बनाया। अनेक स्थानों की यात्रा करते हुए वे पुनः गागरोन लौट आये और आहू तथा कालीसिंध के पवित्र संगम पर एक गुफा में रहने लगे। यहाँ इनका मंदिर, निवास स्थान और गुफा प्रसिद्ध है। बाड़मेर जिले के समदड़ी गाँव में पीपाजी का भव्य मंदिर है। यहाँ इनके प्रमुख अनुयायी दर्जी-समाज का प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को विशाल समागम आयोजित होता है।
पीपा से संबंधित विस्तृत साहित्य हस्तलिखित ग्रंथ-भंडारों में उपलब्ध है। जिनमें पीपा की कथा, पीपा-परची, पीपा की वाणी, साखियाँ, पद आदि मुख्य हैं। 17वीं शताब्दी के एक हस्तलिखित ग्रंथ में पीपा द्वारा रचित एक चितावनी नामक ग्रंथ भी प्राप्त हुआ है।
ईश्वर-प्राप्ति में गुरु के निर्देशन को पीपा ने आवश्यक बताया है। भक्ति (नाम-स्मरण) को ये मोक्ष प्राप्ति का प्रमुख साधन मानते हैं। पीपा मूर्ति-पूजा का विरोध करते हुए ईश्वर-उपासना करने पर जोर देते हैं हैं। पीपा ऊँच-नीच में विश्वास नहीं करते थे। वे । वे प्राणी-मात्र की समानता का समर्थन करते हुए कहते हैं कि ईश्वर की दृष्टि में सभी प्राणी समान हैं।
जांभोजी
विश्नोई सम्प्रदाय के प्रवर्तक जांभोजी का जन्म 1451 ई. की भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को पीपासर (नागौर) के पंवार वंशीय राजपूत लोहटजी तथा हांसा देवी के घर में हुआ। 1483 ई. में माता-पिता के देहांत के पश्चात् वे गृह त्यागकर सम्भराथल (बीकानेर) में रहते हुए सत्संग तथा हरि-चर्चा में अपना समय व्यतीत करने लगे।
1485 ई. में इसी स्थान पर इन्होंने 'विश्नोई सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया। इनके जीवन तथा विचारों पर आचरण करने वाले विश्नोई कहलाये। इन्होंने अपने अनुयायियों को उनतीस सिद्धांतों का पालन करने का आदेश दिया। जीव कल्याण तथा वृक्षों की रक्षार्थ प्राणोत्सर्ग करना इस सम्प्रदाय का इतिहास रहा है। पर्यावरण के प्रति लगाव के कारण 'जांभोजी' को पर्यावरण वैज्ञानिक भी कहा जाता है। जांभोजी द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथ जम्भ संहिता, जम्भ सागर शब्दावली, विश्नोई धर्मप्रकाश तथा जम्भसागर है।
1536 ई. में लालासर गाँव में इन्होंने अपना नश्वर शरीर त्याग दिया तथा तालवा गाँव के निकट इन्हें समाधिस्थ किया गया। यह स्थान 'मुकाम' कहलाता है। वर्ष में दो बार फाल्गुन और आश्विन की अमावस्या को यहाँ मेला लगते हैं।
जसनाथजी
जसनाथी संप्रदाय के प्रवर्तक जसनाथजी का जन्म 1482 ई. को कतरियासर (बीकानेर) में हुआ था। इन्हें हमीरजी जाणी जाट और रूपांदे का पौष्य पुत्र माना जाता है। लोक-विश्वास के अनुसार इन्होंने गोरखमालिया (बीकानेर) में बारह वर्ष तक कठोर तपस्या करते हुए सभी को जीवों पर दया करने का संदेश दिया था।
जसनाथजी ने लोह पांगल नामक तांत्रिक का घमण्ड चकनाचूर किया। रावलूणकरण को बीकानेर का राजपद पाने का वरदान भी दिया है। इनके चमत्कारों से प्रभावित होकर दिल्ली सुल्तान सिकन्दर लोदी तक ने इन्हें कतरियासर के पास भूमि दी थी। 1500 ई. में जसनाथजी तथा जांभोजी का परस्पर मिलन हुआ था। जसनाथजी ने आश्विन शुक्ल सप्तमी 1506 ई. में चौबीस वर्ष की अल्प आयु में कतरियासर में जीवित समाधि ले ली। इनके उपदेश सिंभूधड़ा व कोंडा नामक ग्रंथ में संग्रहित है।
कतरियासर ही जसनाथजी की तपोभूमि व कर्मस्थली हैं। यहाँ वर्ष में तीन बार आश्विन शुक्ल सप्तमी, माघ शुक्ल सप्तमी और चैत्र शुक्ल सप्तमी को विशाल मेले लगते हैं।
लालदास
लालदासी संप्रदाय के प्रवर्तक लालदास का जन्म मेवात प्रदेश (अलवर) के धोलीदूब गाँव में श्रावण कृष्ण पंचमी 1504 ई. में हुआ था। इनके पिता का नाम चांदमल और माता का समदा था। लालदास ने तिजारा के फकीर गदन चिश्ती से दीक्षित होकर उन्हीं की प्रेरणास्वरूप धोलीदूब छोड़कर बांधोली ग्राम में 'सिंह शिला' पहाड़ पर कुटिया बना ली।
मेवात क्षेत्र में फैली धार्मिक व सामाजिक कुरीतियों को दूर करने हेतु लालदासजी ने नैतिक शुद्धता पर बल दिया। संत लालदास ने हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों की अच्छाइयों को अपनाने के उपदेश दिए। इनका मानना था कि ईश्वर व अल्लाह एक हैं, जो दूसरों को कष्ट पहुँचाता है, स्वयं उसका जीवन कष्टमय हो जाता है। मेव मुसलमान लालदासजी को पीर मानते हैं। लालदास की चेतावनियां इनका मुख्य काव्य ग्रंथ है। नगला में 1648 ई. में 108 वर्ष की दीर्घायु में इनका निधन हुआ। इनकी समाधि शेरपुर में है जहाँ पर आश्विन मास की एकादशी व माघ पूर्णिमा को मेला लगता है।
संत हरिदास
निरंजनी संप्रदाय के संस्थापक संत हरिदास का जन्म डीडवाना तहसील के कापड़ोद गाँव में 1455 ई. में हुआ। इनका मूल नाम हरिसिंह सांखला था और प्रारम्भ में लूटमार करना इनका पेशा था, लेकिन एक संन्यासी के उपदेशों से इनका जीवन बदल गया। 1513 ई. में इन्होंने 'बोध' (ज्ञान) प्राप्त किया और अपना नाम हरिदास रख लिया। इन्होंने निर्गुण भक्ति पर जोर दिया तथा कुरीतियों का विरोध किया। इन्होंने निरंजनी संप्रदाय प्रारम्भ किया, इस संप्रदाय में परमात्मा को 'अलख निरंजन' या 'हरि निरंजन' कहा जाता है। संत हरिदास के आध्यात्मिक विचार मंत्र राजप्रकाश और हरिपुरुष की वाणी नामक ग्रंथों में संकलित हैं। डीडवाना में 1543 ई. में इनका देहान्त हुआ।
दादूदयाल
राजस्थान के कबीर' दादूदयाल का जन्म अहमदाबाद (गुजरात) में फाल्गुन शुक्ल अष्टमी 1544 ई. का माना जाता है। बुड्ढ़न (वृद्धानन्द) नामक संत से दीक्षा ग्रहण करके दादू 1568 ई. में सांभर आकर रहने लगे तथा धुनिया का कार्य आरम्भ कर दिया। यहाँ से दादू ने उपदेश देना आरम्भ किया।
1575 ई. में दादू अपने 25 शिष्यों के साथ आमेर चले आये। जहाँ अगले 14 वर्षों तक इन्होंने निवास किया। दादू ने 1585 ई. में मुगल सम्राट अकबर से भेंट करने हेतु फतेहपुर सीकरी की यात्रा भी की थी।
दादू तत्कालीन ढूंढाड़ और मारवाड़ राज्यों में यात्रा करते व उपदेश देते हुए 1602 ई. में फुलेरा के समीपवर्ती ग्राम नरायणा में आ गये और यहीं ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी 1603 ई. को इन्होंने देह त्याग किया। दादू के पार्थिव शरीर को उनके निर्देशानुसार ही समीपस्थ 'भेराणा' की पहाड़ी के नीचे 'दादू खोल' नामक स्थान पर रख दिया गया था। दादू-पंथी इस स्थान को अत्यन्त पवित्र मानते हैं।
दादू ने ब्रह्म, जीव, जगत और मोक्ष पर अपने उपदेश सरल भाषा (सधुक्कड़ी) में दिए। दादूजी की वाणी तथा दादू रा दूहा नामक ग्रंथों में दादू के उपदेश और विचार मिलते हैं। दादू कबीर की ही तरह सुधारवादी, आचरण और मोक्ष के मूल्यों को मानने वाले, परमतत्व की तलाश करने वाले थे। दादू ने कर्मकाण्ड, जातिप्रथा, मूर्तिपूजा, रूढ़िवादिता आदि का घोर विरोध किया। गरीबदास, मिस्किनदास, सुन्दरदास, बखनाजी, रज्जब, माधोदास आदि दादू के प्रसिद्ध शिष्य थे।
मीरा बाई
कृष्ण भक्त कवयित्री व गायिका मीरा बाई सोलहवीं सदी के भारत के महान् संतों में से एक थी। मीरा को राजस्थान की राधा भी कहा जाता है। इनका जन्म मेड़ता के राठौड़ राव दूदा के पुत्र रतनसिंह के घर में कुड़की (पाली) नामक ग्राम में 1498 ई. के लगभग हुआ था। इनके पिता रतनसिंह राठौड़ बाजोली के जागीरदार थे। मीरा का लालन-पालन अपने दादाजी के यहाँ मेड़ता में हुआ। इनका विवाह 1516 ई. में राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र युवराज भोजराज के साथ हुआ था, पर विवाह के कुछ वर्ष पश्चात् ही पति की मृत्यु हो जाने से यह तरुण अवस्था में ही विधवा हो गई। मीरा का साधु-संतों में उठना-बैठना और उनके साथ भजन-कीर्तन करना इनके देवर राणा विक्रमादित्य को पसंद नहीं आया। विक्रमादित्य ने मीरा को जहर देने तथा सर्प से कटवाने का भी प्रयत्न किया, किंतु मीरा की कृष्ण भक्ति कम नहीं हुई।
कृष्ण भक्ति का विचार मीरा को अपनी दादी से प्राप्त हुआ था। एक बार एक बारात को दूल्हे सहित जाते देखकर बालिका मीरा अत्यधिक प्रभावित हुई और अपनी दादी के पास जाकर उत्सुकता से अपने दूल्हे के बारे में पूछने लगी। दादी ने तुरंत ही गिरधर गोपाल का नाम बता दिया। मीरा को तभी से गिरधर गोपाल की लगन लग गई।
मीरा अपने अंतिम समय में गुजरात में द्वारिका के डाकोर स्थित रणछोड़ मंदिर में चली गई और वहीं 1547 ई. में अपने गिरधर गोपाल में विलीन हो गई। मीरा जी की पदावलियाँ प्रसिद्ध हैं।
इनकी भक्ति की मुख्य विशेषता यह थी कि उन्होंने ज्ञान से अधिक भावना व श्रद्धा को महत्व दिया। मीरा की भक्ति माधुर्य भाव की रही।
संत राणा बाई
राजस्थान की दूसरी मीरा' संत राना बाई का जन्म मारवाड़ के हरनांवा (मकराना के पास) गाँव में वैशाख शुक्ल तृतीया को 1504 ई. में एक जाट परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम रामगोपाल तथा माता का नाम गंगाबाई था। पालड़ी के संत चतुरदास की शिष्या राना बाई कृष्ण भक्त थी। 66 वर्ष की उम्र में हरनांवा गाँव में फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी को 1570 ई. में राना बाई ने जीवित समाधि ली। यहाँ प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी को एक विशाल मेला आयोजित किया जाता है।
संत मावजी
संत मावजी का जन्म 1714 ई. में साबला गाँव में हुआ था। संत मावजी ने अपने विचारों को स्थायी एवं साकार रूप देने हेतु निष्कलंक (यानि पवित्र एवं पाप-रहित) नामक सम्प्रदाय की स्थापना की।
कहा जाता है कि जब इनकी आयु 12 वर्ष थी, तो यह घर छोड़कर माही और सोम नदी के संगम पर एक गुफा में तपस्या करने लगे। इसी स्थान पर संवत् 1784 माघ शुक्ला एकादशी गुरुवार को इन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और उसी दिन वहाँ पर मावजी ने बेणेश्वर (वेण वृन्दावन) नामक धाम की स्थापना की। इसके बाद इन्होंने धर्मोपदेश देना आरम्भ कर दिया और अपने शिष्यों में में बिना किसी भेदभाव के सभी जातियों के लोगों को शामिल किया।
इन्होंने लसाड़ा के पटेल भक्त की दान राशि से अहमदाबाद से कागज मंगवाया और धोलागढ़ में एकान्तवास करके पांच बड़े ग्रंथों की रचना की, जिनके छन्दों की संख्या 72 लाख 96 हजार बतलाई जाती है। वाद-विवाद की शैली में लिखे ये ग्रंथ चौपड़ा कहलाते हैं।
मावजी के ये चौपड़े केवल दीपावली के दिन ही बाहर निकाले जाते हैं। मावजी के अनुयायी इन्हें विष्णु का दसवां अवतार 'कल्कि अवतार' मानते हैं। डूंगरपुर जिले में इनके अनुयायी बड़ी संख्या में हैं। इनका मुख्य मंदिर साबला में है जहाँ मावजी की शंख, चक्र, गदा और पद्म सहित घोड़े पर सवार चतुर्भुज मूर्ति है। बेणेश्वर धाम पर माघ शुक्ल पूर्णिमा को सोम, जाखम और माही नदियों के त्रिवेणी संगम पर मेला लगता है।
रामचरण
जयपुर राज्य के अंतर्गत सोडा गाँव में माघ शुक्ल चतुर्दशी 1719 ई. को वैश्य-कुल में बखतराम ओर देऊजी के यहाँ रामकिशन (रामचरण का मूल नाम) का जन्म हुआ।
मेवाड़ के दांतड़ा ग्राम में महाराज कृपारामजी से 1751 ई. को दीक्षा प्राप्त करके रामकिशन रामचरण बन गए। 1758 ई. में गलताजी के मेले के समय साधुओं के धर्म के प्रतिकूल व्यवहार को देखकर इनका मन संसार से उचट गया तथा रामचरणजी वैरागी हो गये।
इसके बाद भीलवाड़ा में साधना करते हुए इन्होंने निर्गुण भक्ति और सभी के प्रति प्रेम का उपदेश दिया। मूर्तिपूजकों द्वारा परेशान करने पर रामचरण कुहाड़ा गाँव चले गए। शाहपुरा से निमंत्रण प्राप्त होने पर वह शाहपुरा चले गए। शाहपुरा नरेश रणसिंह ने इनके रहने के लिए एक छतरी का निर्माण करवाया और एक मठ भी स्थापित किया। राम नाम स्मरण करते हुए 1798 ई. में शाहपुरा में ही इनका निधन हुआ। इनके आध्यात्मिक उपदेश अणभैवाणी नामक ग्रंथ में संकलित हैं।
रामचरणजी द्वारा प्रवर्तित पंथ रामस्नेही सम्प्रदाय' के नाम से प्रसिद्ध है। इस सम्प्रदाय की चार प्रधान शाखाएं मानी गई हैं। इन शाखाओं में रामचरण को शाहपुरा शाखा का संस्थापक बताया गया है। अन्य तीन शाखाओं-रेण, सिंहथल और खेड़ापा शाखा के संस्थापक क्रमशः दरियावजी, हरिरामदासजी तथा रामदासजी माने गए हैं। रामस्नेही सम्प्रदाय का फूलडोल महोत्सव' इस सम्प्रदाय की अपनी विशिष्टता है।
महर्षि नवलराम
नवल संप्रदाय के संस्थापक नवलराम का जन्म भाद्रपद कृष्णा अष्टमी विक्रम संवत् 1840 को हरसोलाव (नागौर) में दलित समुदाय से संबंधित एक मेहतर परिवार में हुआ। बचपन में आध्यात्मिकता की ओर इनका झुकाव देखकर इनके पिता खुशालराम ने इन्हें रामानंद संप्रदाय के संत करताराम के पास भेज दिया। गुरू करताराम ने ही इनका नाम 'नवलराम' रखा और इन्हें निर्गुण व निराकार ईश्वर का उपदेश दिया। महर्षि नवलराम ने देश में जगह-जगह भ्रमण कर शिक्षा के महत्त्व पर बल दिया। उन्होंने समाज में व्याप्त रूढ़िवादी दृष्टिकोण, आडम्बरों, जादू-टोना, सती प्रथा, अस्पृश्यता, पर्दा प्रथा, बाल विवाह आदि धार्मिक एवं सामाजिक कुरीतियों का विरोध करते हुए जनमानस को जागरूक किया। महर्षि ने सत्य, गुरू और ईश्वर भक्ति को मोक्ष प्राप्त करने में सहायक माना। उन्होंने एकेश्वरवाद का समर्थन किया और निराकार ईश्वर की उपासना पर बल दिया -
साधो भाई हम निर्गुण दीदारा नाम अनाम में ना ही, अभे अखंड स्वरूप हमारा।
महर्षि नवलराम ने मारवाड़ी भाषा में अनेक भजन, दोहे, श्लोक, छंद एवं चौपाइयों की रचना की। मारवाड़ के शासक मानसिंह इनका बड़ा सम्मान करते थे। नवल सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ जोधपुर में है।
सांगलिया धूणी (सीकर)
सीकर जिले की धोद तहसील के सांगलिया गांव में स्थित यह आश्रम सर्वंगी सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र है जिसकी स्थापना लक्कड़दास महाराज द्वारा 1649 ई. में की गई। यह सम्प्रदाय जाति-पांत के भेद के स्थान पर मानव मात्र की समानता में विश्वास करता है। झाड़-फूंक व ताबीज में अविश्वास प्रकट करते हुए अनुयायियों को सद्मार्ग पर चलने की शिक्षा दी जाती है। अनुयायियों का मुख्य अभिवादन 'जय साहेब' है। आश्रम में प्रत्येक महिने की अमावस्या व पूर्णिमा को सत्संग का आयोजन होता है जिसमें आडम्बरों के स्थान पर केवल आध्यात्मिक भजन किए जाते है। ग्रामीण क्षेत्र में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए आश्रम द्वारा बाबा खींवादास महाविद्यालय का संचालन भी किया जा रहा है। इस महाविद्यालय की स्थापना के लिए राष्ट्रपति के. आर. नारायणन द्वारा आश्रम के पीठाधीश्वर खींवादास महाराज को सम्मानित किया गया।
