1946 ई. में जब यह स्पष्ट प्रतीत होने लग गया था कि भारत की स्वतंत्रता अब ज्यादा दूर नहीं है, तो इसका असर राजस्थान की रियासतों पर भी स्पष्ट दिखाई देने लगा। इस समय राजस्थान में 19 रियासतें, 3 ठिकाने व एक केन्द्र शासित प्रदेश अजमेर-मेरवाड़ा था। इस अध्याय में हम उन घटनाओं के बारे में जानेंगे, जो अंततः इन विभिन्न रियासतों में बंटे राजस्थान को एक एकीकृत राजस्थान के रूप में बदल देती है।
सर्वप्रथम मेवाड़ के महाराणा भूपालसिंह ने तारीख 25 और 26 जून, 1946 ई. को राजस्थान यूनियन बनाने के उद्देश्य से राजस्थान, गुजरात और मालवा के राजाओं का एक सम्मेलन उदयपुर में बुलाया। इस सम्मेलन में 22 राजा-महाराजा उपस्थित थे। इसमें महाराणा ने एक 'राजस्थान संघ' के निर्माण की योजना प्रस्तुत की। राजाओं ने महाराणा की योजना पर विचार करने का वादा किया।
महाराणा को अपने प्रस्तावों को अमली जामा पहनाने की धुन बनी रही। उन्होंने सुप्रसिद्ध संविधानवेत्ता के.एम. मुंशी को अपना संवैधानिक सलाहकार नियुक्त किया। मुंशी की सलाह पर महाराणा ने उक्त राजाओं का एक और सम्मेलन तारीख 23 मई, 1947 ई. को उदयपुर में आमन्त्रित किया। महाराणा ने सम्मेलन में राजाओं को चेतावनी दी कि "हम लोगों ने मिलकर अपनी रियासतों की यूनियन नहीं बनाई तो सभी रियासतें जो प्रान्तों के समकक्ष नहीं हैं, निश्चित रूप से समाप्त हो जाएंगी।" मुंशी ने भी इस सम्मेलन में महाराणा की योजना का जोरदार समर्थन किया, किंतु अंतिम रूप से कोई लाभकारी परिणाम सामने नहीं आया।
जयपुर के महाराजा मानसिंह की स्वीकृति से वहाँ के दीवान सर वी.टी. कृष्णामाचारी ने भी प्रदेश के शासकों और उनके प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन बुलाया। इस सम्मेलन में उन्होंने प्रस्ताव रखा कि प्रदेश की रियासतों का एक ऐसा संघ बनाया जाए, जिसमें हाईकोर्ट, उच्च शिक्षा, पुलिस आदि विषय संघ को सौंप दिए जाएं और शेष विषय इकाइयों के पास रहें। उन्होंने सम्मेलन को यह भी कहा कि यदि उन्हें यह प्रस्ताव स्वीकार न हो तो समस्या का दूसरा हल यह है कि प्रदेश की जो रियासतें अपना पृथक अस्तित्व रखने की क्षमता नहीं रखतीं, वे पड़ोस की बड़ी रियासतों में मिल जाएं, परंतु सम्मेलन बिना किसी निर्णय पर पहुँचे ही समाप्त हो गया।
मत्स्य संघ का निर्माण :
देश के विभाजन के समय भारतीय उपमहाद्वीप में भीषण साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे। अलवर और भरतपुर की रियासतें भी इन दंगों से नहीं बच सकीं। भारत सरकार को इस प्रकार की शिकायतें मिलीं कि अलवर में दंगे भड़काने में स्वयं अलवर प्रशासन का हाथ है। भारत सरकार ने 7 फरवरी को महाराजा अलवर और डॉ. खरे को दिल्ली में नजरबन्द कर दिया और अलवर का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया।
भरतपुर में साम्प्रदायिक दंगों से उत्पन्न स्थिति से भारत सरकार इस निर्णय पर पहुंची कि वहाँ का प्रशासन राज्य में कानून और व्यवस्था बनाए रखने में सर्वथा निकम्मा साबित हुआ है। इसके पहले कि भारत सरकार इस सम्बन्ध में कोई कदम उठाती, स्वयं वहाँ के महाराजा ने भरतपुर का प्रशासन भारत सरकार को सौंप दिया।
अलवर और भरतपुर से मिली हुई धौलपुर और करौली की छोटी-छोटी रियासतें थीं। ये चारों रियासतें भारत सरकार द्वारा निर्धारित मापदण्ड के अनुसार पृथक् अस्तित्व बनाये रखने योग्य नहीं थीं। अतः इन चारों ने मिलकर मत्स्य संघ बना लिया। इस नए राज्य का उद्घाटन भारत सरकार के मंत्री एन. बी. गाडगिल ने 17 मार्च, 1948 को किया। संघ के राजप्रमुख महाराजा धौलपुर और उप राजप्रमुख महाराजा करौली बनाए गए। अलवर प्रजामण्डल के प्रमुख नेता शोभाराम कुमावत मत्स्य संघ के प्रधानमंत्री बने।
राजस्थान संघ का निर्माण :
रियासती विभाग ने तारीख 3 मार्च, 1948 ई. को कोटा, बून्दी, झालावाड़, टोंक, डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, प्रतापगढ़, किशनगढ़ और शाहपुरा की रियासतों को मिलाकर 'राजस्थान संघ' नामक राज्य के निर्माण का प्रस्ताव दिया। राजस्थान संघ में शामिल होने वाली रियासतें चाहती थीं कि मेवाड़ भी इस प्रस्तावित संघ का हिस्सा बने, पर मेवाड़ महाराणा सहमत न थे। यद्यपि मेवाड़ प्रजामण्डल ने महाराणा के इस निर्णय का विरोध किया, परन्तु अंतिम परिणाम इस संघ को मेवाड़ के न शामिल होने के रूप में ही आया। आखिरकार बिना मेवाड़ के ही यह संघ अस्तित्व में आया।
प्रस्तावित राज्य में शामिल होने वाली सभी रियासतों के शासकों ने कोवीनेन्ट (विलय पत्र) पर हस्ताक्षर कर दिए। बाँसवाड़ा के महारावल चन्द्रवीरसिंह ने विलय-पत्र पर हस्ताक्षर करने में थोड़ी हिचकिचाहट बताई। अन्त में पड़ोसी रियासतों की सलाह पर उन्होंने भी विलय-पत्र पर यह कहकर हस्ताक्षर कर दिए कि, "मैं अपने 'डेथ वारन्ट' पर हस्ताक्षर कर रहा हूँ।"
मेवाड़ का राजस्थान संघ में विलय :
5 अप्रैल को मेवाड़ में हुए गोलीकाण्ड ने महाराणा को बचाव की स्थिति में ला दिया। प्रजामण्डल ने राज्य में अविलम्ब, पूर्ण उत्तरदायी सरकार की स्थापना और गोलीकाण्ड की जाँच के लिए न्यायिक आयोग नियुक्त करने की माँग की। दिल्ली में उस समय काँग्रेस की हुकूमत थी। महाराणा को 'राजस्थान संघ' में विलय ही प्रजामंडल से बचाव का उपाय सूझा। उन्होंने सर राममूर्ति, डॉ. मोहनसिंह मेहता और अन्य सलाहकारों को मेवाड़ के विलय की शर्ते अविलम्ब तय करने के लिये दिल्ली भेजा। रियासती विभाग तो इस प्रकार के सुनहरी अवसर के इन्तजार में था ही।
रियासती विभाग ने यह नीति बना ली थी कि किसी भी रियासत के शासक को 10 लाख रुपये वार्षिक से अधिक प्रिवीपर्स नहीं दिया जाएगा। महाराणा की ओर से 20 लाख रु वार्षिक प्रिवीपर्स की माँग की गई। रियासती विभाग ने रास्ता ढूँढ़ निकाला। उसने महाराणा को 10 लाख रुपये वार्षिक प्रिवीपर्स, 5 लाख वार्षिक राजप्रमुख के पद का भत्ता और शेष 5 लाख रुपये वार्षिक मेवाड़ के राजवंश की परम्परा के अनुसार धार्मिक कृत्यों में खर्च के लिए देना स्वीकार कर लिया। उसने महाराणा को संयुक्त राजस्थान का आजन्म राजप्रमुख बनाना भी स्वीकार कर लिया। उस समय तक इतनी रियायतें विलय होने वाली किसी अन्य रियासत के शासक को नहीं दी गई थी।
मेवाड़ का प्रतिनिधि-मण्डल रियासती विभाग से मनचाही शर्तें मंजूर करवा कर दिल्ली से उदयपुर लौटा तो महाराणा ने राहत की साँस ली।
कोटा में राजस्थान संघ राज्य का 25 मार्च को उद्घाटन होने वाला था, पर मेवाड़ के विलय के निश्चय की सूचना रियासती विभाग को 23 मार्च को मिल गई थी। अतः वी.पी. मेनन ने महाराव कोटा को सलाह दी कि मेवाड़ के विलय के सम्बन्ध में निर्णय होने तक नए राज्य का उद्घाटन समारोह रोक दिया जाए। महाराव कोटा ने उत्तर दिया कि समारोह की सारी तैयारियाँ हो चुकी हैं एवं कई राजा, महाराजा एवं अन्य अतिथियों को निमंत्रण भेजे जा चुके हैं, अतः समारोह निर्धारित तारीख को सम्पन्न करना होगा। रियासती विभाग ने महाराव कोटा का तर्क मान लिया। 25 मार्च को भारत सरकार के मंत्री एन.वी. गाडगिल ने कोटा में नये राज्य के उद्घाटन की रस्म अदा की। उन्होंने महाराव कोटा को राजप्रमुख एवं गोकुललाल असावा को प्रधानमंत्री के पद की शपथ दिलवाई।
मेवाड़ महाराणा द्वारा विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने के तुरन्त बाद रियासती विभाग ने राज्य के प्रधानमंत्री पद के लिये मेवाड़ के तपस्वी नेता माणिक्यलाल वर्मा को मनोनीत किया। वर्मा ने उदयपुर लौटते ही संयुक्त राजस्थान के राजप्रमुख महाराणा भूपालसिंह से मंत्रिमण्डल निर्माण सम्बन्धी चर्चा की। महाराणा ने वर्मा को मन्त्रिमण्डल में जागीरदारों को प्रतिनिधित्व देने का आग्रह किया। वर्मा ने राजप्रमुख का सुझाव मानने से स्पष्ट इन्कार कर दिया। नए राज्य के बनते ही वैधानिक संकट पैदा हो गया। 18 अप्रैल, 1948 को पं. नेहरू संयुक्त राज्य राजस्थान का उद्घाटन करने हेतु उदयपुर पहुंचे।
पंडित नेहरू ने वर्मा को सलाह दी कि वे अपने पद की शपथ ले लें ओर मन्त्रिमण्डल बनाने में कोई कठिनाई पैदा हो तो वे और सर राममूर्ति दिल्ली जाकर रियासती विभाग से सलाह कर लें। पं. नेहरू की सलाह पर राजप्रमुख के साथ ही साथ वर्माजी ने भी प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। इसके पश्चात् वर्मा ने अपनी इच्छानुसार मंत्रिमंडल का गठन किया।
संयुक्त राज्य राजस्थान का मंत्रिमण्डल केवल 11 माह रहा। इस अल्प-अवधि में उसने वह कर दिखाया जो किसी प्रान्त या राज्य की सरकार 11 वर्षों में भी नहीं कर पाई। इस आश्चर्यजनक सफलता का श्रेय वर्मा के नेतृत्व और उनके तपे-तपाये सहयोगियों को जाता है, जिन्होंने परिश्रम, लगन और दृढ़ निश्चय के साथ राजस्थान की सदियों से शोषित जनता के प्रति अपने उत्तरदायित्व को निभाया।
वृहत् राजस्थान का निर्माण :
अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् की राजपूताना प्रान्तीय सभा 20 जनवरी, 1948 ई. को एक प्रस्ताव द्वारा राजस्थान की सभी रियासतों को मिलाकर वृहत् राजस्थान राज्य के निर्माण की माँग कर चुकी थी। परन्तु भारत सरकार के सामने उक्त प्रस्ताव को क्रियान्वित करने में कई व्यावहारिक कठिनाइयाँ थी। प्रदेश में जोधपुर, जयपुर और बीकानेर, जैसी रियासतें थी, जो भारत सरकार द्वारा निर्धारित मापदण्ड के अनुसार अपना पृथक् अस्तित्व रख सकती थी।
किंतु जोधपुर, बीकानेर और जैसलमेर राज्यों की सीमाएँ पाकिस्तान से मिली हुई थी, जहाँ से सदैव आक्रमण का भय बना रहता था। ये रियासतें थार के विशाल रेगिस्तान का अंग थी, जिसका विकास करना उक्त राज्यों की आर्थिक सामर्थ्य के बाहर था। अतः रियासती विभाग इन रियासतों को वृहत् राजस्थान में शामिल करना चाहता था।
दिसम्बर, 1948 ई. के प्रथम सप्ताह में सरदार पटेल की सहमति से वी.पी. मेनन ने जोधपुर, बीकानेर और जयपुर के राजाओं से वृहत् राजस्थान के निर्माण के लिए विचार-विनिमय शुरू किया। तीनों शासक अपनी-अपनी रियासतों को पृथक् इकाइयों के रूप में रखने के इच्छुक थे।
अन्ततोगत्वा कई बैठकों के बाद मेनन उक्त राजाओं को विलय के लिए मनाने में सफल हो गए। जैसलमेर का शासन-प्रबंध पहले ही भारत सरकार के हाथ में था। 14 जनवरी, 1949 ई. को सरदार पटेल ने उदयपुर में एक विशाल सार्वजनिक सभा में घोषणा की कि जोधपुर, जयपुर और बीकानेर के महाराजाओं ने अपनी-अपनी रियासतों का राजस्थान में विलय करना स्वीकार कर लिया है। सरदार पटेल की इस ऐतिहासिक घोषणा का उपस्थित जनसमुदाय ने करतल ध्वनि से स्वागत किया। इसके पश्चात् इस योजना पर विचार करने हेतु 3 फरवरी, 1949 को दिल्ली में वी.पी. मेनन ने एक बैठक का आयोजन किया।
इस बैठक में निर्णय लिया गया कि जयपुर के महाराजा सवाई मानसिंह को जीवन-पर्यन्त राजप्रमुख बनाया जाए एवं उदयपुर के प्राचीन राजवंश की मान-मर्यादा को ध्यान में रखते हुए महाराणा भूपालसिंह को महाराज प्रमुख का सम्मानीय पद दिया जाए। वर्मा इस बैठक में सम्मिलित नहीं हो पाए, पर अगले दिन उन्होंने निर्णय पर हस्ताक्षर कर दिए।
इस बैठक में राजधानी का मसला सरदार वल्लभभाई पटेल पर छोड़ दिया गया। सरदार पटेल ने राजधानी के चुनाव के लिए विशेषज्ञों की एक समिति (पी. सत्यनारायण राव समिति) नियुक्त की। इस समिति ने जयपुर को राजस्थान की राजधानी बनाने की सिफारिश की। समिति ने राजस्थान के अन्य बड़े नगरों का महत्व बनाए रखने के लिए कुछ राज्य स्तर के सरकारी कार्यालय उक्त नगरों में रखने की सलाह दी। सरदार पटेल ने समिति की सिफारिश स्वीकार कर ली। फलस्वरूप जयपुर को राजस्थान की राजधानी घोषित कर दिया गया। हाईकोर्ट जोधपुर में, शिक्षा विभाग बीकानेर में, खनिज और कस्टम एवं एक्साइज विभाग उदयपुर में, वन और सहकारी विभाग कोटा में एवं कृषि विभाग भरतपुर में रखने का निर्णय लिया गया। 30 मार्च, 1949 को सरदार पटेल द्वारा वृहत् राजस्थान का विधिवत उद्घाटन किया गया। 30 मार्च को राजस्थान दिवस के रूप में मनाए जाने का निर्णय भी लिया गया। हीरालाल शास्त्री को इस वृहत् राजस्थान का प्रधानमंत्री बनाया गया।
राजस्थान की विभिन्न रियासतों के विलय के साथ ही साथ राजस्थान में सदियों पुरानी राजाशाही समाप्त हो गई। मेवाड़ के गुहिल (सिसोदिया), जैसलमेर के भाटी, जयपुर के कछवाहा और बूंदी के हाड़ा चौहान संसार के प्राचीनतम राजवंश में से थे। राजाशाही के अन्तिम चिह्न के रूप में अब केवल राजप्रमुख के नवसृजित पद रह गए। ये पद संयुक्त राजस्थान और मत्स्य संघ में प्रान्तों के राज्यपालों (गवर्नर) के समकक्ष थे। यह एक ऐसी रक्तहीन क्रान्ति थी, जिसका उदाहरण संसार के इतिहास में ढूंढने पर भी नहीं मिलेगा।
मत्स्य संघ का विलय :
अलवर, भरतपुर, धौलपुर और करौली की रियासतों के एकीकरण द्वारा 18 मार्च, 1948 ई. को मत्स्य संघ बनया गया था। अब जबकि जयपुर, जोधपुर और बीकानेर की रियासतें राजस्थान में मिल गईं, तो मत्स्य संघ को अलग इकाई के रूप में रखने का कोई अर्थ नहीं था। इन रियासतों को भी वृहत् राजस्थान का हिस्सा बनाने के लिए डॉ. शंकरराव देव समिति का गठन किया गया। भारत सरकार ने समिति की सिफारिश को ध्यान में रखते हुए मत्स्य संघ की चारों इकाइयों को 15 मई, 1949 ई. को राजस्थान में मिला दिया। वहाँ के प्रधानमंत्री, शोभाराम को शास्त्री-मंत्रिमण्डल में शामिल कर लिया गया।
सिरोही का प्रश्न :
गुजरात के नेता सिरोही स्थित आबू-पर्वत के सैलानी केन्द्र को गुजरात का अंग बनाना चाहते थे। रियासती विभाग उनके प्रभाव में था। अतः जनता के विरोध के बावजूद भी रियासती विभाग ने नवम्बर, 1947 ई. में सिरोही को राजपूताना एजेन्सी से हटाकर गुजरात एजेन्सी के अन्तर्गत कर दिया था।
सिरोही की जनता ने माँग की कि सिरोही को बम्बई में न मिलाया जाकर संयुक्त राजस्थान में मिलाया जाए। कुछ ही दिनों बाद उदयपुर ने भी संयुक्त राजस्थान में शामिल होने का फैसला किया। इस अवसर पर अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् की राजपूताना प्रान्तीय सभा के महामंत्री श्री हीरालाल शास्त्री ने अपने 10 अप्रैल के तार में सरदार वल्लभभाई पटेल को लिखा, " यह जानकर प्रसन्नता हुई कि उदयपुर संयुक्त राजस्थान में शामिल हो रहा है। इससे सिरोही का राजस्थान में शामिल होना और भी अवश्यंभावी हो गया है। फिर हमारे लिए सिरोही का अर्थ है, गोकुलभाई। बिना गोकुलभाई के हम राजस्थान को नहीं चला सकते।" शास्त्री जी को इस तार का कोई उत्तर नहीं मिला।
18 अप्रैल को संयुक्त राजस्थान के उद्घाटन के अवसर पर उदयपुर में राजस्थान के कार्यकर्ताओं का एक शिष्टमण्डल पं. जवाहरलाल नेहरू से मिला और उनको सिरोही के सम्बन्ध में प्रदेश की जनता की भावनाओं से अवगत कराया। पं. नेहरू ने इस संबंध में सरदार पटेल से बातचीत की, किंतु फिर भी सरदार पटेल ने गोकुलभाई भट्ट के जन्म स्थान हाथल व कुछ अन्य स्थानों को छोड़कर शेष सिरोही गुजरात में शामिल कर दिया।
इस निर्णय के फलस्वरूप सिरोही में व्यापक आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। यह आन्दोलन तब समाप्त हुआ, जब भारत सरकार ने अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने का आश्वासन दिया। राजस्थान के साथ किए गए इस अन्याय का निराकरण 1 नवम्बर, 1956 को हुआ, जबकि राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिश के आधार पर सिरोही का माउण्ट आबू वाला इलाका पुनः गुजरात से निकाल कर राजस्थान में मिलाया गया।
अजमेर का विलय :
अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् की राजपूताना प्रान्तीय सभा की सदैव यह माँग रही थी कि वृहत् राजस्थान में न केवल प्रान्त की सभी रियासतें, वरन् अजमेर का इलाका भी शामिल हो। अजमेर कांग्रेस नेतृत्व कभी इस पक्ष में नहीं रहा। सन् 1952 के आम चुनावों के बाद वहां हरिभाउ उपाध्याय के नेतृत्व में कांग्रेस मंत्रिमण्डल बन चुका था। अब तो वहां का नेतृत्व यह दलील देने लगा कि प्रशासन की दृष्टि से छोटे राज्य ही बनाए रखना उचित है। किंतु राज्य पुनर्गठन आयोग ने अजमेर के नेताओं के इस तर्क को स्वीकार नहीं किया और सिफारिश की कि उसे राजस्थान में मिला देना चाहिए। तदनुसार 1 नवम्बर, 1956 को माउण्ट आबू क्षेत्र साथ ही साथ अजमेर मेरवाड़ा भी राजस्थान में मिला दिया गया। इस प्रकार राजस्थान निर्माण की जो प्रक्रिया मार्च, 1948 में शुरू हुई, वह 1 नवम्बर, 1956 को सम्पूर्ण हुई।