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राजस्थान में जनजागृति और प्रजामण्डल

राजस्थान में जनजागृति और प्रजामंडल- राजस्थान का स्वतंत्रता आंदोलन एवं शौर्य परंपरा कक्षा 9वीं की किताब से

1857 ई. का प्रथम स्वाधीनता संग्राम सफल नहीं हो पाया, परंतु जनता में नवचेतना व जागृति की भावना अवश्य उत्पन्न हो गई। इसके लिए निम्नांकित कारक उत्तरदायी थे :-

राजस्थान के सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक वैभव की आत्मानुभूति जब हिन्दी, गुजराती और बांग्ला साहित्य से राजस्थानी चरित्रों के बारे में हुई, तब जनता अपने प्राचीन गौरव के प्रति सजग हो उठी।

आर्य समाज की शाखाओं ने भी राजस्थान में स्वतंत्रता के प्रति विचारों को फैलाकर राष्ट्रीय चेतना प्रज्ज्वलित की। राजनीतिक जागृति की भावना को विकसित करने में स्वामी दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानंद का महत्वपूर्ण योगदान रहा।

साहित्य और पत्रकारिता ने भी राष्ट्रीय भावना को जगाया। बंकिमचन्द्र चटर्जी के 'वन्देमातरम्' गान से राजस्थान गूंज उठा। राजस्थान समाचार, देश हितैषी, परोपकारक आदि समाचार पत्रों ने भी राष्ट्रीय भावना की जागृति में महत्वपूर्ण सहयोग दिया। उदयपुर से 'सज्जन कीर्ति सुधाकर' तथा अजमेर से एक अंग्रेजी साप्ताहिक 'राजस्थान टाइम्स' का सन् 1885 ई. में प्रकाशन शुरू हुआ। अखबारों के माध्यम से लोगों में राष्ट्रीय और राजनीतिक चेतना का उदय हुआ।

छप्पनियां के भीषण अकाल के समय अंग्रेजों की ओर से जो उपेक्षा बरती गई, उसके कारण अंग्रेजों के प्रति विरोध का वातावरण बना। अतः जनता के मन में स्वतंत्रता प्राप्ति के विचार बनने आरम्भ हो गए।

एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण समारोह के समय उदयपुर के महाराणा फतेह सिंह को आमंत्रित किया गया। इसमें शामिल होने के लिए उन्होंने दिल्ली प्रस्थान किया। तभी उन्हें रास्ते में शाहपुरा के क्रांतिकारी केसरी सिंह बारहठ ने 'चेतावनी रा चूंगटियाँ' नामक एक रचना भेंट की। उससे उनमें आत्मसम्मान की भावना जागी और उन्होंने 'दिल्ली दरबार' के समारोह में शामिल न होने का निश्चय किया। महाराणा के इस कार्य से राजस्थान की जनता में एक नवचेतना की लहर दौड़ गई।

अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों के कारण राजस्थान का आर्थिक जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। बेरोजगारी की स्थिति उत्पन्न हो गई। असंतोष का वातावरण उत्पन्न हो गया।

1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। 1887 ई. में गवर्नमेंट कॉलेज, अजमेर के छात्रों ने कांग्रेस कमेटी का गठन किया। आगे चलकर जनता में राष्ट्रीय भावना उत्पन्न हुई, जो निरंतर बलवती होती गई। 1888 ई. में कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में अजमेर के गोपीनाथ माथुर, किशनलाल और हरविलास शारदा राजस्थान के प्रतिनिधि बनकर गए।

1918 ई. में दिल्ली में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में राजस्थान के कई व्यक्तियों ने भाग लिया, जिसके परिणामस्वरूप इनका सम्पर्क ब्रिटिश भारत और अन्य राज्यों के नेताओं से हुआ। इस अधिवेशन के बाद गणेशशंकर विद्यार्थी, विजयसिंह पथिक, जमनालाल बजाज, चांदकरण शारदा, गिरधर शर्मा, स्वामी नरसिंहदेव सरस्वती आदि के प्रयत्नों से राजपूताना मध्य भारत सभा नामक एक राजनीतिक संस्था की स्थापना दिल्ली के चांदनी चौक स्थित मारवाड़ी पुस्तकालय में हुई। बाद में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन (1920) के समय यह कांग्रेस की सहयोगी संस्था मान ली गई।

राजपूताना मध्य भारत सभा का दूसरा अधिवेशन कांग्रेस अधिवेशन के साथ ही दिसम्बर 1919 में अमृतसर में सम्पन्न हुआ। मार्च 1920 में इसका तीसरा अधिवेशन जमनालाल बजाज की अध्यक्षता में अजमेर मे आयोजित किया गया। दिसम्बर 1920 में सभा का चौथा अधिवेशन नागपुर में हुआ। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन भी इस समय नागपुर में हो रहा था। सभा के अध्यक्ष नरसिंह चिंतामणि केलकर निर्वाचित हुए थे, किन्तु कुछ कारणों से वे नागपुर नहीं पहुँच पाए। अतः जयपुर के गणेशनारायण सोमाणी को सर्वसम्मति से सभापति चुना गया। अधिवेशन में एक प्रदर्शनी भी लगाई गई, जिसमें राजस्थान के कृषकों की दयनीय स्थिति दर्शायी गई थी। राजस्थानी जनता का आह्वान अब कांग्रेसी नेताओं तक पहुँचा। राजस्थान के नेताओं के दबाव के कारण कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें राजस्थान के राजाओं से यह आग्रह किया गया था कि वे अपनी प्रजा को शासन में भागीदार बनाएँ।

1919 ई. में वर्धा में ही 'राजस्थान सेवा संघ' की स्थापना विजयसिंह पथिक, रामनारायण चौधरी और हरिभाई किंकर के योगदान से हुई। इस संघ का मुख्य उद्देश्य जनता की समस्याओं का निवारण करना था। इसका दूसरा ध्येय जागीरदारों और राजाओं का अपनी प्रजा के साथ सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करवाना था। इस संघ के माध्यम से राजस्थान में राजनीतिक चेतना का प्रसार हुआ। धीरे-धीरे बूंदी, जयपुर, जोधपुर, सीकर, खेतड़ी, कोटा आदि स्थानों पर संघ की शाखाएँ खोली गई। 'राजस्थान सेवा संघ' ने बिजौलिया और बेगूं में किसान आन्दोलन, सिरोही और उदयपुर में भील आन्दोलन का मार्गदर्शन किया था। संघ ने बूंदी, सिरोही और उदयपुर में पुलिस द्वारा किए गए अत्याचारों को उजागर किया और इनकी आलोचना की। ब्रिटिश सरकार 'राजस्थान सेवा संघ' की गतिविधियों से सशंकित थी। मार्च, 1924 में रामनारायण चौधरी और शोभालाल गुप्त को 'तरुण राजस्थान' में देशद्रोहात्मक सामग्री प्रकाशित करने के अपराध में गिरफ्तार कर लिया गया। न्यायालय ने रामनारायण को तो मुक्त कर दिया, परन्तु गुप्त को दो वर्षों के कठोर कारावास की सजा मिली। 1924 ई. में मेवाड़ राज्य सरकार द्वारा 'पथिक' को कैद किए जाने के बाद से सेवा-संघ के पदाधिकारियों व सदस्यों में परस्पर मतभेद शुरू हो गए। शनैः शनैः मतभेद की खाई चौड़ी होती गई। परिणामस्वरूप 1928-29 तक 'राजस्थान सेवा संघ' पूर्णतया प्रभावहीन हो गया।

सन् 1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व महात्मा गांधी के हाथों में आ गया। उन्होंने 1921 ई. में असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया। समस्त भारत पर इसका प्रभाव पड़ा। राजस्थान भी इससे अछूता नहीं रहा। यहाँ भी लोगों में देशप्रेम की भावना जागृत हुई और राज्यों में निरंकुश शासन के प्रति तीव्र रोष उत्पन्न हुआ। जोधपुर में एक सत्याग्रही भँवरलाल सर्राफ हाथ में तिरंगा झंडा लेकर शहर में घूमे। झण्डे के एक ओर महात्मा गाँधी और दूसरी ओर 'स्वराज' लिखा था। उन्होंने बाजार में एक भाषण दिया, जिसे जनता ने उत्साह से सुना। टोंक राज्य की जनता ने एक सभा कर काँग्रेस के प्रति पूर्ण सहानुभूति व्यक्त की और असहयोग आन्दोलन का अनुमोदन किया। वहाँ के अंग्रेज पुलिस अधिकारी ने उनके नेता मौलवी अब्दुल रहीम, सैयद जुबेर मियाँ, सैयद इस्माइल मियाँ, काजी महमूद अय्यूब आदि को गिरफ्तार कर लिया। लगभग सत्तर अन्य व्यक्ति भी इस सम्बन्ध में गिरफ्तार किए गए, लेकिन शीघ्र ही छोड़ दिए गए। जयपुर राज्य में जमनालाल बजाज ने अपनी 'रायबहादुर' की उपाधि लौटा दी और एक लाख रुपये 'तिलक स्वराज कोष' में दिए। उन्होंने ग्यारह हजार रुपये मुस्लिम लीग को दिए। उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की कार्यकारिणी का सदस्य बनाया गया। इसके बाद वे गाँधी जी के बहुत निकट आ गए। बजाज से प्रेरित होकर राजस्थान के दूसरे व्यापारियों ने भी इस आन्दोलन के दौरान कांग्रेस को आर्थिक सहयोग दिया।

बीकानेर में राजनीतिक जागृति अपेक्षाकृत देरी से हुई। धीरे-धीरे यहाँ भी ब्रिटिश प्रान्तों में चल रहे असहयोग आन्दोलन का प्रभाव पड़ने लगा और जनता में रियासती शासन के प्रति असन्तोष फैलना आरम्भ हो गया। सन् 1921 में बीकानेर में मुक्ताप्रसाद वकील आदि ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई और खादी पहनने का व्रत लिया। बीकानेर में खादी भण्डार भी खोला गया। अनेक स्थानों पर जनता में जागृति लाने के उद्देश्य से पुस्तकालय और वाचनालय खोले गए। चूरू, सुजानगढ़, रतनगढ़ आदि में सर्वहितकारिणी सभा, विद्या प्रचारिणी सभा आदि नाम से समाज सेवा के उद्देश्य से संस्थाएँ स्थापित की गईं। इन संस्थाओं की ओर से राजनीतिक साहित्य के पर्चे आदि प्रसारित किए गए।

15 मार्च 1921 को अजमेर में द्वितीय राजनीतिक सम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसमें मोतीलाल नेहरू उपस्थित थे। मौलाना शौकत अली ने सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार का आह्वान किया। अजमेर में पण्डित गौरीशंकर के नेतृत्व में विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया गया। इस कार्य में अर्जुनलाल सेठी, चांदकरण शारदा आदि ने भी भाग लिया।

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान राजस्थान के नरेशों ने तन, मन और धन से ब्रिटिश सरकार को सहायता प्रदान कर ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति पूर्ण निष्ठा का परिचय दिया था। ब्रिटिश सरकार ने भी उन्हें अपना विश्वसनीय सहयोगी तथा युद्ध संचालन में भागीदार बनाया था। बीकानेर के महाराजा गंगासिंह को साम्राज्यिक युद्ध मंत्रिमंडल और साम्राज्यिक युद्ध सम्मेलन का सदस्य मनोनीत किया गया। उन्हें जर्मनी से संधिवार्ता में भाग लेने के लिए भारत का प्रतिनिधित्व करने हेतु पेरिस भेजा गया। विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद वायसराय की अध्यक्षता में नरेन्द्र मण्डल की स्थापना की गई, जहाँ देशी राजा अपने राज्यों और भारत सरकार से संबंधित समस्याओं पर विचार-विमर्श कर सकते थे।

इसके साथ ही ब्रिटिश सरकार द्वारा देशी राजाओं को संकेत दिया गया कि राष्ट्रवादी मध्यमवर्गीय लोग किसान, मजदूर आदि समाज की निम्न स्तर की उभरती शक्ति ब्रिटिश सरकार और देशी नरेशों के लिए समान रूप से अशान्ति और खतरा उत्पन्न करने का कारण बन सकती है। ब्रिटिश प्रशासकों ने मेवाड़ के बिजौलिया ठिकाने में किसान पंचायतों की स्थापना पर गौर किया और उनकी आत्मनिर्भरता की तुलना रूसी सोवियतों से की और बिजौलिया किसान आन्दोलन के सूत्रधार पथिक को बोलशेविक (विप्लववादी) कहा। एक बार फिर समान हितों की बात कहकर देशी राज्यों का सहयोग प्राप्त करने का प्रयास किया गया। देशी राज्यों का अस्तित्व ब्रिटिश सत्ता के साथ जुड़ा हुआ था। इसलिए राजस्थान के राजाओं ने असहयोग आन्दोलन को अपने अस्तित्व के लिए खतरा समझा।

राजस्थान के शासक अपने राज्यों में असहयोग आन्दोलन के दौरान होने वाली गतिविधियों के प्रति सतर्क हो गए। स्वयं को प्रगतिशील मानने वाले बीकानेर के महाराजा गंगासिंह ने अपने राज्य के शिवमूर्ति सिंह, सम्पूर्णानन्द और आनन्द वर्मा को सरकारी नौकरी से इसलिए निलंबित कर दिया क्योंकि वे स्वदेशी वस्त्र पहनते थे और उन्होंने 'तिलक स्वराज कोष' में चंदा जमा कराया था।

जोधपुर महाराजा के संरक्षक सर प्रतापसिंह इस आन्दोलन के कारण इतना बौखला उठे कि उन्होंने राज्य में विदेशी माल को प्रोत्साहन देना आरम्भ कर दिया, जबकि इससे पूर्व वे महर्षि दयानन्द के उपदेश मानकर हिन्दी भाषा और स्वदेशी का प्रचार कर रहे थे।

उदयपुर के महाराणा फतेहसिंह असहयोग आन्दोलन के प्रति गुप्त रूप से सहानुभूति रखते थे। भारत सरकार ने उन्हें आदेश दिया कि वे या तो उनके कहे अनुसार मंत्रिमंडल का गठन करें या युवराज को शासन के अधिकार सौंपकर स्वयं राजकाज से अलग हो जाएँ। महाराणा ने विवश होकर अपने युवराज भूपालसिंह को 28 जुलाई, 1921 को शासनाधिकार सौंप दिये। युवराज ने अंग्रेज सरकार की इच्छानुसार मंत्रिमंडल बनाया। राजस्व विभाग जैसा महत्वपूर्ण विभाग एक अंग्रेज अधिकारी मिस्टर ट्रैच को सौंप दिया गया।

ब्रिटिश सरकार अब यह प्रयत्न करने लगी थी कि जहाँ तक हो सके राजस्थान के राज्यों में अंग्रेज मंत्रियों की नियुक्ति हो ताकि वे राज्यों में बढ़ती हुई राजनीतिक चेतना पर नियंत्रण रख सकें। सिरोही, बूंदी, जोधपुर और जयपुर में अंग्रेज व्यक्तियों को मंत्री नियुक्त किया गया। जहाँ ऐसा संभव नहीं हुआ, वहाँ राज्य के बाहर के व्यक्तियों को उच्च पदों पर नियुक्त करने की व्यवस्था की गई। स्थानीय प्रतिभा की पूर्ण रूप से अवहेलना की गई। मारवाड़ (जोधपुर) राज्य का प्रथम मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण व्यक्ति और स्थानीय कॉलेज का प्रथम स्नातक दरबार हाई स्कूल में क्रमशः लेखाकार और सामान्य अध्यापक के पद पर ही कार्यरत रहे। राजस्थान के अनेक राज्यों में राजाओं के प्रशासन का अधिकार छीनकर नवनियुक्त दीवानों और निरंकुश नौकरशाहों को दे दिया गया। उनका कार्य जनता की राजनीतिक गतिविधियों पर अंकुश लगाये रखना था। वे अपने कार्यों के लिए राजा या जनता के स्थान पर दिल्ली के राजनीतिक विभाग के प्रति उत्तरदायी थे।

बीसवीं शताब्दी के तृतीय दशक तक राज्यों में बहुत बड़ी संख्या में शिक्षित लोग मौजूद थे, जिन्हें राज्य में कार्य करने का अवसर प्राप्त नहीं हो रहा था, परिणामस्वरूप उनमें असन्तोष फैल गया। इस शिक्षित वर्ग ने प्रचलित व्यवस्था में व्याप्त अनियमितताओं को उजागर कर जनता में जागृति उत्पन्न की। उन्होंने नागरिक अधिकारों और उत्तरदायी सरकार की स्थापना के लिए संघर्ष किया और जन-आन्दोलनों को नेतृत्व प्रदान किया। राजस्थान में अब एक नये युग का सूत्रपात हुआ।

राजस्थान में प्रजामण्डलों की स्थापना :

राजस्थान में स्वतंत्रता संघर्ष को तीन चरणों में विभक्त किया गया है- प्रथम 1927 ई. से पूर्व, द्वितीय 1927-1938 ई. तक तथा तृतीय 1938 से 1949 ई. तक। प्रथम चरण सामाजिक और मानवतावादी समस्याओं पर केन्द्रित था। द्वितीय चरण में 1927 ई. में ऑल इण्डिया स्टेट्स पीपुल्स कांफ्रेंस की स्थापना हुई। 1938 ई. में हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में प्रस्ताव पास कर देशी रियासतों में लोगों द्वारा स्वतंत्रता संघर्ष चलाने की बात कही गई। 1938 ई. के बाद ही विभिन्न राज्यों में प्रजामण्डल या प्रजा परिषदों की स्थापना हुई तथा राजनीतिक अधिकारों और उत्तरदायी प्रशासन के लिए आन्दोलन शुरू किए गए।

प्रजामण्डल की स्थापना से पूर्व भी मुख्यतः बुद्धिजीवी वर्ग ने ब्रिटिश भारत के समान रियासतों में भी प्रजा के अनेक संगठन बनाए। ऐसे संगठनों में 1918 ई. में राजपूताना मध्य भारत सभा, 1919 ई. में राजस्थान सेवा संघ तथा 1920 ई. में अखिल भारतीय देशी लोक परिषद् की स्थापना हुई। इन संगठनों के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन में तीव्रता आई।

प्रजामण्डलों की स्थापना :

सर्वप्रथम प्रजामण्डल की स्थापना 1931 ई. में जयपुर में की गई, परन्तु इसने राजनीति में प्रवेश 1938 ई. में किया। मारवाड़ में प्रजामण्डल की स्थापना 1934 ई. में हुई और कोटा में प्रजामण्डल की स्थापना 1938 ई. में हुई। इसी वर्ष उदयपुर में मेवाड़ प्रजामण्डल व अलवर में अलवर राज्य प्रजामण्डल की स्थापना की गई। 1939 ई. में भरतपुर में भी इसकी स्थापना हो गई। बूंदी ने प्रजामण्डल की स्थापना कोटा से छः वर्ष बाद 1944 ई. में की। 1945 ई. में जैसलमेर प्रजामण्डल की स्थापना की गई। 1933 ई. में सिरोही लोक परिषद् की स्थापना बम्बई (मुम्बई) में की गई और बीकानेर में लोक परिषद् की स्थापना 1936 ई. में की गई।

1. जोधपुर में जन आन्दोलन :

राजस्थान का जन आन्दोलन सर्वप्रथम जोधपुर से प्रारम्भ हुआ। जनवरी 1938 ई. में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जोधपुर आए और उन्होंने लोगों से त्याग और बलिदान के लिए सदैव तत्पर रहने के लिए आह्वान किया। द्वितीय महायुद्ध में जब अंग्रेजों ने देशी राज्यों से परामर्श किए ही बिना देशी राज्यों को युद्ध में धकेल दिया, तो मारवाड़ लोक परिषद् में इसके विरोध में आवाज उठाई गई। जब ब्रिटिश प्रान्तों में कांग्रेस मन्त्रिमण्डलों ने अपना रोष बताते हुए पद से त्यागपत्र दिए, तो जोधपुर के जयनारायण व्यास ने भी सलाहकार परिषद् से इस्तीफा दे दिया। इस कारण सरकार ने 29 मार्च, 1940 ई. को लोक परिषद् को गैर कानूनी संस्था घोषित कर दिया और अनेक नेताओं को जेल में डाल दिया।

छात्रों ने इस आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया। इनमें प्रमुख थे जगदीशलाल, जोरावरमल और मदनलाल। इन्होंने छात्रों को स्कूल जाने से रोका और उन्हें परीक्षा न देने का अनुरोध किया। 18 अगस्त, 1942 को आन्दोलन के छठे डिक्टेटर फूलचंद बाफना को गिरफ्तार कर लिया गया। नागौर के शिवदयाल दवे को भी, जिसे सातवाँ डिक्टेटर बनाया गया था, गिरफ्तार कर लिया। आठवें डिक्टेटर, तुलसीदास राठी को भी उसी दिन गिरफ्तार कर लिया गया। इस प्रकार पुलिस ने एक ही दिन लोक परिषद् के तीन डिक्टेटरों को गिरफ्तार कर लिया।

मारवाड़ की स्त्रियों ने भी आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 18 अगस्त 1942 को पाँच स्त्रियों ने कुछ स्कूली छात्रों के साथ मिलकर ब्रिटिश विरोधी नारे लगाते हुए प्रभात फेरी निकाली। शीघ्र ही भीड़ इकट्ठी हो गई। घुड़सवार पुलिस को रोकने के उद्देश्य से स्त्रियाँ सड़क पर लेट गईं। क्रुद्ध जनता ने पुलिस को बुरा-भला कहा और उस पर पत्थर फेंके इनमें रमादेवी, कृष्णा कुमारी अचलेश्वर प्रसाद की पत्नी और दयावती रामचन्द्र पालीवाल की पत्नी शामिल थी। इससे पूर्व उन्होंने सर प्रताप स्कूल, पुष्टिकर स्कूल और सरदार हाई स्कूल में धरना देने का प्रयास किया। 22 सितम्बर 1942 को एक सभा में सूरजदेवी माथुर और सावित्रीदेवी माथुर ने उत्तरदायी शासन सम्बंधी गीत गाए। आर्य समाज कन्या पाठशाला की प्रधानाध्यापिका ने इस सभा में एक जोशीला भाषण दिया।

बाद में सार्वजनिक मांग पर 1944 ई. में जोधपुर राज्य व्यवस्थापिका सभा की स्थापना की गई। लेकिन राष्ट्रवादी इससे सन्तुष्ट नहीं हुए और अक्टूबर 1946 ई. को डाबरा काण्ड हुआ, जिसमें डीडवाना के जागीरदारों ने अपने सामंती सहयोगियों के द्वारा लोक परिषद् के कार्यकर्ताओं पर अमानवीय अत्याचार करवाए। यद्यपि राष्ट्रीय समाचारपत्रों में इस कृत्य की तीव्र भर्त्सना की गई, परन्तु जोधपुर महाराजा ने इसकी कोई परवाह नहीं की। जून, 1947 में जोधपुर के महाराजा उम्मेद सिंह का देहान्त हो गया और उनके पुत्र हणुवन्त सिंह को गद्दीनशीन किया गया। नये राजा ने प्रधानमंत्री वेंकटचारी को हटा दिया और अपने जागीरदारों व रिश्तेदारों का मन्त्रिमण्डल बना लिया। 28 फरवरी, 1948 को भारत सरकार ने वी.पी. मेनन को जोधपुर भेजा और उनके समझाने पर राजा ने वस्तुस्थिति को समझा। 1948 ई. में जयनारायण व्यास के मन्त्रिमण्डल का निर्माण हुआ और मार्च 1949 में जोधपुर वृहत्तर राजस्थान में विलीन हो गया।

2. बीकानेर में जन आन्दोलन :

बीकानेर के महाराजा गंगा सिंह एक प्रगतिशील शासक थे और उन्होने अपनी योग्यता से अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर ली थी। उन्होंने राज्य में व्यवस्थापिका, हाई कोर्ट व नगरपालिकाओं का निर्माण कर सुधारक की भूमिका अदा की थी। परन्तु जन आन्दोलन को उन्होंने साम, दाम, दण्ड भेद की नीति से दबा दिया था। बीकानेर में जन जागृति लाने वालों में चूरू के स्वामी गोपालदास सर्वप्रथम थे। रियासती शासन ने 'बीकानेर षड्यन्त्र केस' में स्वामी गोपाल दास व उसके आठ साथियों को फंसा दिया और जेल में अनेक यातनाएं दी। मधाराम वैद्य ने राजा के आतंक के कारण कलकत्ता जाकर बीकानेर प्रजामण्डल की स्थापना की। 1943 ई. में गंगा सिंह की मृत्यु हो गई और उनके बाद शार्दूल सिंह राजा बने। पिता की तरह पुत्र ने भी दमन चक्र चालू रखा परन्तु 1947 ई. के बाद राजा बदलते समय को पहचान गए और 1947 ई. में बीकानेर एक्ट पास कर द्विसदनीय व्यवस्थापिका-राज्यसभा तथा धारा-सभा की स्थापना की गई। इसके अतिरिक्त लोक सेवा आयोग व हाई कोर्ट का भी गठन किया गया। जनता को कतिपय मौलिक अधिकार भी प्रदान किए गए। अप्रैल, 1947 में बीकानेर ने केन्द्रीय संविधान सभा में प्रतिनिधि भेजे। बीकानेर ने वृहद् राजस्थान में शामिल होने में कोई अड़चन पैदा नहीं की।

लम्बे इन्तजार के बाद दिसम्बर, 1947 में बीकानेर संविधान अधिनियम जनता के लिए प्रकाशित कर दिया गया। कहने को तो इसके अनुसार शासक के संरक्षण में कार्य करते हुए, जनता के प्रति एक उत्तरदायी सरकार बनाई जा रही थी और व्यापक मताधिकार पर आधारित दो सदनों वाली व्यवस्थापिका अस्तित्व में आई। कुछ बातों को छोड़कर समस्त शासन एक परिषद् को सौंप दिया गया, जो व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी थी। शासक ने यह भी घोषणा कर दी कि दो वर्षों के भीतर ही उनके संरक्षण में एक पूर्ण उत्तरदायी सरकार बनाई जाएगी। जनवरी, 1948 में महाराजा ने सभी राजनीतिक बन्दियों को रिहा कर दिया। प्रजा परिषद् के कार्यकर्ताओं ने एक सभा में घोषणा की कि नया संविधान स्वीकार करने योग्य नहीं है। 2 फरवरी, 1948 को यह घोषणा की गई कि अप्रैल, 1948 तक उत्तरदायी सराकर अस्तित्व में आ जायेगी। 18 मार्च, 1948 को शार्दूलसिंह ने मंत्रिपरिषद् के स्थान पर एक मिला-जुला अन्तरिम मंत्रिमण्डल बनाने की घोषणा की, जिसका कार्य राज्य में दैनिक शासन को जारी रखना था। यह मिला-जुला मंत्रिमण्डल अधिक दिनों तक कार्य नहीं कर सका। प्रजामण्डल चुनाव करवाने के पक्ष में नहीं था। सामन्ती प्रतिनिधियों के साथ मिलकर जन प्रतिनिधियों के लिए सरकार चलाना सम्भव नहीं था। प्रजामण्डल के सदस्यों ने मंत्रिमण्डल से इस्तीफा दे दिया। विवश होकर महाराजा ने मंत्रिमण्डल भंग कर दिया। केन्द्र के दबाव के फलस्वरूप उसे प्रस्तावित चुनाव भी रद्द करने पड़े।

इसी बीच केबिनेट योजना के अन्तर्गत अन्तरिम सरकार बनी और संविधान निर्मात्री सभा का कार्य आरम्भ हुआ। देशी राज्यों को भी संविधान निर्मात्री सभा में भाग लेने को आमंत्रित किया गया। महाराजा शार्दूलसिंह ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए इसमें भाग लेने का निर्णय किया। उसने अन्य राज्यों को भी इसमें भाग लेने के लिए प्रेरित किया। 28 अप्रैल, 1947 को बीकानेर के प्रतिनिधि के.एम. पणिक्कर ने संविधान-निर्मात्री सभा में अपना स्थान ग्रहण किया। 3 जून, 1947 को माउंटबैटन योजना की घोषणा हुई, जिसमें भारत के विभाजन का उल्लेख था। देशी नरेशों के समक्ष अब यह विकल्प था कि वे स्वतंत्र रहें या भारतीय संघ या पाकिस्तान में सम्मिलित हो। महाराजा शार्दूलसिंह ने बीकानेर राज्य को भारतीय संघ में सम्मिलित करने का निर्णय किया।

3. जैसलमेर में जन आन्दोलन :

जैसलमेर एक ऐसा राज्य था जहां जन चेतना का नितान्त अभाव था। इसका मूल कारण यह था कि जैसलमेर में कम जनसंख्या थी और इसका अधिकांश भाग मरु भाग था। यातायात के साधनों का अभाव था और संचार माध्यम भी विकसित नहीं थे। यहां के राजा ने जन आकांक्षाओं को अधिक दबा रखा था। यही कारण है कि पहला समाचार पत्र 'विजय' 1920 ई. में प्रारम्भ हुआ और 1932 ई. में माहेश्वरी समाज नवयुवक मण्डल का गठन किया गया। राजा ने इस पत्र पर प्रतिबंध लगाकर इसके मंत्री को जेल में डाल दिया। सागरमल गोपा ही ऐसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने निरंकुश शासन के विरुद्ध जनता में जागृति पैदा की। परन्तु वे रियासती शासन के आतंक व अत्याचार के शिकार हुए। सागरमल अपनी व्यथा का वृत्तान्त निरन्तर जयनारायण व्यास, शेख अब्दुल्ला और जवाहरलाल नेहरू को भेजते रहे। सागरमल गोपा को 4 अप्रैल 1946 को जेल में ही जलाकर मार डाला। इसके बाद मीठालाल व्यास ने जैसलमेर प्रजामण्डल की स्थापना का साहस किया, परन्तु राजा के आतंक से बचने के लिए इसकी स्थापना जोधपुर में की गई। 28 मई को जयनारायण व्यास व मीठालाल ने जैसलमेर में जुलूस निकाला और एक विशाल आम सभा का आयोजन किया। इसके पश्चात् जनभावना को नहीं दबाया जा सका। अन्त में जैसलमेर भी वृहद राजस्थान में शामिल हो गया।

4. मेवाड़ में जन आन्दोलन :

मेवाड़ राज्य में जन जागृति का सूत्र पहले ही बिजौलिया सत्याग्रह और बेगूं किसान आन्दोलन के रूप में हो चुका था। अप्रैल, 1938 में माणिक्य लाल वर्मा ने 'मेवाड़ प्रजामण्डल' की स्थापना की। मेवाड़ के तत्कालीन प्रधानमंत्री धर्मनारायण ने इसे गैर कानूनी संस्था घोषित कर दिया और माणिक्य लाल वर्मा को मेवाड़ छोड़कर चले जाने का आदेश दिया। इस पर माणिक्य लाल वर्मा अजमेर चले गए और अपनी गतिविधियों का संचालन वहां रहकर करने लगे। लेकिन मेवाड़ की सरकार ने फरवरी, 1939 में माणिक्यलाल वर्मा को देवली से जबरदस्ती उठा लिया और उन्हें यातनाएं ही नहीं दी, अपितु मुकदमा चलाकर जेल में डाल दिया गया। फरवरी, 1941 में प्रजामण्डल पर से प्रतिबन्ध हटा दिया गया। नवम्बर 1941 में प्रजामण्डल का प्रथम अधिवेशन माणिक्य लाल वर्मा के सभापतित्व में बड़ी धूमधाम के साथ हुआ। इस अवसर पर आचार्य जे.बी. कृपलानी तथा विजयलक्ष्मी पंडित भी आईं और खादी व ग्रामोद्योग प्रदर्शनी का आयोजन भी किया गया। बाद में मेवाड़ हरिजन सेवा संघ की भी स्थापना की गई और इसका कार्य भार मोहनलाल सुखाड़िया को सौंपा गया। इसी प्रकार भील, मीणा और आदिवासियों के कल्याण का कार्य बलवन्त सिंह मेहता के सुपुर्द किया गया।

अगस्त 1942 में जब महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आन्दोलन चलाया, तो प्रजामण्डल को फिर गैर कानूनी संस्था घोषित कर दिया गया और इसके सम्बद्ध नेताओं को गिरफ्तार कर दिया गया। दिसम्बर 1945 में मेवाड़ प्रजामण्डल के निमंत्रण पर अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् का सातवां अधिवेशन उदयपुर में आयोजित किया गया, जिसमें 435 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन की अध्यक्षता पं. जवाहरलाल नेहरू ने की थी। धीरे-धीरे देश के वातावरण के साथ मेवाड़ में भी परिवर्तन आने लगा। महाराणा ने उत्तरदायी शासन की मांग को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए मेवाड़ को नया संविधान दिया, जिसका प्रारूप के.एम. मुन्शी ने तैयार किया था। स्वतंत्रता के बाद मेवाड़ भी राजस्थान में विलीन हो गया।

5. कोटा में जन आन्दोलन :

कोटा में जन जागृति का सूत्रपात लगभग 1918 ई. से ही प्रारम्भ हो गया था। कोटा निवासियों ने भी विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार चालू कर दिया था ओर उनमें गाँधी टोपी पहने जाने का उत्साह शुरू हो गया था। यहां पंडित नयनूराम शर्मा पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने राजकीय सेवा का त्याग कर सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया था। वे विजय सिंह पथिक द्वारा स्थापित राजस्थान सेवा संघ के सक्रिय सदस्य बन गए थे। उन्होंने सर्वप्रथम बेगार प्रथा के विरुद्ध कोटा में आन्दोलन चलाया और 1934 ई. में हाड़ौती प्रजामण्डल की स्थापना की। फिर इनके साथ पं. अभिन्न हरि भी हो गए और दोनों ने मिलकर सरकार से उत्तरदायी सरकार बनाने का आग्रह किया। अभिन्न हरि मांगरोल के रहने वाले थे, इसलिए उन्होंने यह 1939 ई. में कोटा राज्य प्रजामण्डल की स्थापना वहां की। इसकी अध्यक्षता पं. नयनूराम ने की। अधिवेशन के स्वागताध्यक्ष सेठ मोतीलाल बनाए गए। 1940 ई. में कोटा की रामतलाई क्षेत्र में कोटा प्रजामण्डल का अधिवेशन आयोजित किया गया। इस अधिवेशन की अध्यक्षता पं. अभिन्न हरि ने की। इस सम्मेलन में विजय सिंह पथिक भी भाग लेने आए थे। कोटा प्रजामण्डल की गतिविधियों को उस समय गहरा धक्का लगा जब पं. नयनूराम की अज्ञात लोगों ने हत्या कर दी और इससे पं. अभिन्न हरि पर प्रजामण्डल का पूरा भार आ गया। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय पं. अभिन्न हरि ने आन्दोलन छेड़ दिया। इस आन्दोलन में इनके साथ मास्टर शंभूदयाल सक्सेना, नाथूलाल जैन, श्याम नारायण सक्सेना, सेठ मोतीलाल, वकील वेणी माधव, श्रीमती वेणी माधव इत्यादि उनके साथ थे। 1945 ई. में इस आन्दोलन में विद्यार्थी भी शामिल हो गए। उन्होंने जुलूस निकाले, और आमसभाएं आयोजित की। प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज हुआ। लेकिन भीड़ ने शहर ने शहर कोतवाली पर कब्जा कर तिरंगा झण्डा फहरा दिया। कोटा की शहरपनाह के फाटक बंद कर दिए गए। शहर में आने वाली सब सड़कों में गड्ढे खोद दिए, ताकि बाहर से कोई मदद न आ सकें। कोटा के दीवान सर हरिलाल घोसलिया और आई. जी. पुलिस संतसिंह आन्दोलन को कुचल देना चाहते थे। परन्तु कोटा के महाराव भीमसिंह ने पलायथा के सर ओंकार सिंह के माध्यम से जनता से 16 अगस्त, 1945 को समझौता कर लिया। बाद में प्रधान मंत्री और आई.जी. पुलिस को भी दरबार ने हटा दिया। इस आन्दोलन के बाद प्रजामण्डल के झण्डे के नीचे कोटा के सामन्त, नागरिक, किसान, मजदूर और छात्र सब आ गए। जब देश आजाद हुआ, तो कोटा के महाराव भीम सिंह ने राजस्थान के विलीनीकरण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण योगदान दिया और इसी कारण वे पूरे राजस्थान के उप राजप्रमुख बनाए गए।

6. बूंदी में जन आन्दोलन 

बूंदी में भी कोटा की भांति राजनीतिक जागृति के लक्षण पहले ही से दिखाई दे रहे थे। विजय सिंह पथिक और रामनारायण चौधरी ने कर-वृद्धि और बेगार के विरुद्ध आन्दोलन प्रारम्भ किया। पुलिस ने किसानों पर अपना दमन चक्र चालू किया और नमाणा ग्राम में बहुत अत्याचार किए, जिससे आन्दोलन में और तेजी आ गई। बूंदी के महाराव ईश्वरी सिंह ने आन्दोलन को दबाने का भरसक प्रयत्न किया। 1931 ई. में कान्तिलाल की अध्यक्षता में बूंदी प्रजामण्डल की स्थापना की गई। 1936 ई. में सरकार ने राजस्थान समाचार पत्र के प्रकाशन पर पाबंदी लगा दी। लेकिन कान्तिलाल व नित्यानन्द ने इसकी परवाह नहीं करते हुए प्रशासकीय सुधारों की मांग की। 1937 ई. में प्रजामण्डल के अध्यक्ष ऋषिदत्त मेहता को तीन वर्ष के लिए राज्य से निष्कासित कर दिया। परन्तु जब वे 1941 ई. वापस बूंदी आए, तो उन्होंने फिर आन्दोलन प्रारम्भ किया। 1942 ई. में उन्होंने बृज सुन्दर शर्मा को साथ लेकर आन्दोलन छेड़ दिया। समय की मांग के अनुसार महाराव ईश्वरी सिंह में भी परिवर्तन आया और उन्होंने संविधान निर्मात्री सभा की नियुक्ति कर दी। भारत आजाद होने पर बूंदी भी वृहद राजस्थान में विलीन हो गया।

7. जयपुर में जन आन्दोलन 

जयपुर में जन जागृति के कार्य का श्री गणेश अर्जुनलाल सेठी ने किया । उनके बाद जमनालाल बजाज ने 1927 में चरखा संघ की स्थापना की। 1931 ई. में कर्पूरचन्द पाटनी ने जयपुर प्रजामण्डल की स्थापना की। प्रारम्भ में इसका कार्य समाज सुधार ही रहा। बाद में पं. हीरालाल शास्त्री, चिरंजीलाल अग्रवाल, कपूरचन्द पाटनी व दौलत मल भण्डारी को भी गिरफ्तार कर लिया गया। इसके विरोध में जयपुर शहर में इस दमन चक्र की भर्त्सना की गई। आखिर सरकार प्रजामण्डल के नेताओं से बातचीत करने के लिए तैयार हो गई। अगस्त, 1939 ई. को दोनों पक्षों में समझौता हो गया जिसके फलस्वरूप प्रजामण्डल को मान्यता मिल गई और सेठ जमनालाल बजाज व अन्य कार्यकर्ता रिहा कर दिए गए।

1940 ई. में पं. हीरालाल शास्त्री प्रजामण्डल के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने राज्य भर में प्रजामण्डल की शाखाएं खोल दी। 1941 ई. (नवम्बर) में प्रजामण्डल का तीसरा अधिवेशन हुआ। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय जयपुर में आन्दोलन छेड़ा गया, तो जयपुर महाराज ने उत्तरदायी सरकार की मांग को स्वीकार कर लिया। अब जयपुर में आन्दोलन का काई औचित्य ही नहीं रहा। इस समय प्रजामण्डल में दो वर्ग हो गए थे। एक वर्ग अपने आप को अखिल भारतीय आन्दोलन के साथ रखना चाहता था और दूसरा, जिसका नेतृत्व शास्त्री जी कर रहे थे, आन्दोलन के पक्ष में नहीं था परन्तु बाबा हरिशचन्द्र के गुट के दबाव में सितम्बर, 1942 को हीरालाल शास्त्री ने प्रधानमंत्री सर मिर्जा इस्माइल को आन्दोलन छेड़ने का अल्टीमेटम दे दिया। इस पर प्रधानमंत्री ने शास्त्रीजी को वार्तालाप के लिए आमंत्रित किया। दोनों में बातचीत के बाद निम्न समझौता हो गया :-

  1. युद्ध के लिए राज्य सरकार जन-धन की सहायता नही देगी।
  2. प्रजामण्डल को राज्य में शांतिपूर्वक युद्ध-विरोधी अभियान चलाने की स्वतन्त्रता होगी।
  3. ब्रिटिश प्रान्तों से आने वाले किसी आन्दोलनकारी को प्रवेश करने में नहीं रोका जाएगा।
  4. जनता को उत्तरदायी शासन देने के लिए राज्य शीघ्रातिशीघ्र कार्रवाई करेगा।
  5. प्रजा मण्डल महाराजा के विरुद्ध किसी प्रकार की सीधी कार्रवाई नहीं करेगा।

इस समझौते के फलस्वरूप जनसाधारण में आन्दोलन करने की प्रेरणा समाप्त प्रायः हो गई। शास्त्री समझौते के बावजूद आजाद मोर्चे के नेताओं ने आन्दोलन चलाया, परन्तु गिरफ्तार कर लिए गए। 1945 ई. में जब जवाहरलाल नेहरू जयपुर आए, तो आजाद मोर्चे का प्रजामण्डल में विलीनीकरण हो गया। अक्टूबर, 1942 में महाराजा ने एक समिति का गठन किया, जिसका कार्य संवैधानिक सुधारों का सुझाव देना था। इस समिति ने दो वर्ष में प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। इसके फलस्वरूप 1945 ई. में दो सदनों वाली व्यवस्थापिका स्थापित की गई, परन्तु दोनों में महाराजा का ही वर्चस्व था। जब चुनाव हुए तो प्रजामण्डल ने चुनाव में भाग लिया जिसमें परिषद में तीन सीटों पर और प्रतिनिधि सभा में 27 सीटों पर विजय प्राप्त की। 24 जुलाई, 1947 के दिन जब नरेन्द्र मण्डल की सभा हुई तो जयपुर नरेश ने यह घोषणा कर दी कि वे भारतीय संघ में सम्मिलित होंगे। लेकिन जब उत्तरदायी सरकार का निर्माण किया गया, तो उसमें प्रजामण्डल का केवल एक सदस्य ही लिया गया। जनता के दबाव पर मंत्रिमण्डल का विस्तार किया गया जिसमें हीरालाल शास्त्री को मुख्यमंत्री बनाया गया और देवीशंकर तिवाड़ी, दौलतमल भण्डारी और टीकाराम पालीवाल को मंत्री बनाया गया। 30 मार्च, 1949 को जयपुर का राजस्थान संघ में विलीनीकरण हो गया और उत्तरदायी सरकार की स्थापना की गई। महाराजा मानसिंह को राजस्थान का राजप्रमुख बनाया गया, महाराणा उदयपुर को महा राजप्रमुख और कोटा महाराव को उप राजप्रमुख बनाया गया।

8. अलवर में जन आन्दोलन 

अलवर राज्य की जनता में जागृति लाने का कार्य पं. हरिनारायण शर्मा ने किया। उन्होंने अस्पृश्यता निवारण संघ, वाल्मीकी संघ तथा आदिवासी संघ की स्थापना की, खादी का प्रचार किया और आम जनता में जागृति पैदा करने का प्रयास किया। जब मार्च, 1933 में ब्रिटिश सरकार ने अलवर के महाराजा जयसिंह को गद्दी से उतार कर अपने मनोनीत एक जागीरदार के पुत्र तेज सिंह को गद्दी पर बिठा दिया, तो इसके विरोध में जनता ने एक आम सभा आयोजित की। राज्य सरकार ने हरिनारायण शर्मा, कुंज बिहारी लाल मोदी और अन्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। 1938 ई. में अलवर राज्य प्रजामण्डल की स्थापना हुई। अन्य प्रजामण्डलों की भांति अलवर प्रजामण्डल ने भी उत्तरदायी सरकार की मांग की और आन्दोलन चालू किया। 1940 ई. में राज्य द्वारा युद्ध कोष के लिए धन एकत्रित करने का प्रजामण्डल ने विरोध किया। इस पर हरिनारायण शर्मा और उनके सहयोगी मास्टर भोलानाथ को गिरफ्तार कर लिया गया। आम जनता ने इसका विरोध किया। भारत छोड़ो आन्दोलन में भी प्रजा मण्डल ने आन्दोलन किया। जनवरी, 1944 ई. में भवानी शंकर शर्मा की अध्यक्षता में प्रजा मण्डल का पहला अधिवेशन हुआ, जिसमें उत्तरदायी सरकार की मांग को दोहराया गया। फरवरी, 1946 में उत्तरदायी सरकार बनाने के लिए प्रजा मण्डल ने आन्दोलन छेड़ दिया और कई गिरफ्तारियां दी। इसके पश्चात् जून, 1946 ई. में प्रजामण्डल ने किसानों के समर्थन से आन्दोलन किया। प्रजामण्डल और सरकार में टकराव 1947 ई. में भी चलता रहा। अलवर में साम्प्रदायिक दंगे हुए। इसके लिए अलवर के दीवान एन.बी. खरे को उत्तरदायी ठहराया और सरकार को यह संदेह था कि महात्मा गांधी की हत्या में खरे की मिलीभगत थी। अतः खरे को दिल्ली में रहने के आदेश दिए गए। मार्च, 1948 में अलवर राज्य का मत्स्य संघ में विलय हो गया।

9. भरतपुर में जन आन्दोलन 

भरतपुर राज्य में जन जागृति उत्पन्न करने वालों में जगन्नाथ दास अधिकारी और गंगाप्रसाद शास्त्री का नाम प्रमुख है। भरतपुर के तत्कालीन राजा महाराजा किशन सिंह (1900-1927) एक प्रगतिशील व्यक्ति थे। उन्होंने हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया और गाँवों व नगरों में स्वायत्तशासी संस्थाओं को विकसित किया। वे उत्तरदायी सरकार बनाने के भी पक्षधर थे। उनके प्रगतिशील विचारों की उन्हें कीमत चुकानी पड़ी और ब्रिटिश सरकार ने उनको गद्दी से उतार दिया और बालक ब्रिजेन्द्र सिंह को गद्दी पर बिठा दिया तथा शासन चलाने के लिए एक प्रशासक नियुक्त कर दिया। 1930 में भरतपुर महाविद्यालय के छात्रों ने स्वतंत्रता दिवस मनाया।

1938 ई. में राज्य के बाहर रेवाड़ी में भरतपुर प्रजामण्डल की स्थापना की गई। इसके अध्यक्ष गोपीलाल यादव बने और कोषाध्यक्ष मास्टर आदित्येन्द्र को बनाया गया। राज्य सरकार ने प्रजामण्डल को गैर कानूनी संस्था घोषित कर दिया। इस पर प्रजामण्डल ने 21 अप्रैल, 1938 ई. को सरकार के विरुद्ध सत्याग्रह प्रारम्भ कर दिया। अन्त में 23 दिसम्बर, 1940 ई. को प्रजा परिषद् को मान्यता दे दी गई और सब नेता जेल से छोड़ दिए गए। 30 दिसम्बर, 1940 ई. को परिषद् का पहला सम्मेलन जयनारायण व्यास की अध्यक्षता में आयोजित किया गया। इसमें उत्तरदायी शासन की मांग प्रस्तुत की गई। सरकार ने 22 अक्टूबर, 1942 में ब्रज जन प्रतिनिधि समिति के गठन की घोषणा की। इसके लिए अगस्त, 1943 में चुनाव करवाए गए। इसमें 50 सदस्य थे, जिनमें 37 निर्वाचित थे। प्रजा परिषद् ने इसमें से 27 पद जीत लिए। युगल किशोर चतुर्वेदी को इसका नेता बनाया गया और मास्टर आदित्येन्द्र को उपनेता। लेकिन परिषद् के ढकोसले का शीघ्र ही पता लग गया और परिषद् के सदस्यों ने इसका बहिष्कार करना चालू कर दिया।

प्रजा परिषद् का दूसरा अधिवेशन 23 मई, 1945 ई. को बयाना में आयोजित किया गया और फिर उत्तरदायी शासन की मांग रखी गई। प्रजा मण्डल ने सत्याग्रह चालू कर दिया। राज्य सरकार ने सब नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। 14 जनवरी, 1947 ई. को वायसराय वेवेल व बीकानेर के महाराजा शार्दूल सिंह भरतपुर आए। उनके पहुंचने पर जनता ने व्यापक प्रदर्शन कर अपना आक्रोश प्रदर्शित किया। सरकार ने भी अपना दमन चक्र चलाया और सारे नेता जेल में डाल दिए गए। अलवर के मेवों व जाटों में दंगे भड़क उठे। 15 अगस्त, 1947 को जब भारत आजाद हुआ, तो भरतपुर साम्प्रदायिकता की आग में जल रहा था। 18 मार्च, 1948 को भरतपुर राज्य को मत्स्य संघ में विलीन कर दिया गया।

10. धौलपुर में जन आन्दोलन 

धौलपुर में जन चेतना का कार्य स्वामी श्रद्धानन्द ने 1918 ई. में ही प्रारम्भ कर दिया था। 1936 में पं. कृष्ण दत्त पालीवाल ने धौलपुर प्रजामण्डल की स्थापना की। इसके पश्चात् 1938 ई. व 1940 ई. में उत्तरदायी शासन की मांग प्रस्तुत की। 12 नवम्बर, 1946 को तासीम गांव में प्रजा मण्डल का अधिवेशन बुलाया गया, परन्तु सरकार ने किराये के गुण्डों के माध्यम से दंगे फसाद करवा दिए। 1947 ई. के बाद भी धौलपुर प्रजामण्डल उत्तरदायी शासन की मांग करता रहा। अन्त में 17 फरवरी, 1948 को सरदार पटेल ने महाराजा को दिल्ली बुलाकर शासनाधिकार त्यागने पर मजबूर कर दिया। बाद में धौलपुर को मत्स्य संघ में विलीन कर दिया गया।

11. करौली में जन आन्दोलन 

करौली में प्रजामण्डल की स्थापना 1938 ई. में हुई। इसके प्रमुख नेता त्रिलोक चन्द माथुर, चिरंजी लाल शर्मा व मान सिंह आदि थे। अन्य राज्यों की भांति करौली में भी आन्दोलन समाप्त करने के प्रयास किए गए। नवम्बर 1946 में करौली के पड़ौसी राज्य के कार्यकर्ताओं का एक सम्मेलन बुलाया गया, जिसमें करौली में उत्तरदायी शासन की मांग की गई। जुलाई, 1947 में महाराजा ने 11 सदस्यों की एक समिति संवैधानिक सुधार के विषय में सुझाव देने के लिए नियुक्त की। प्रजामण्डल ने मांग की कि इसमें कुछ जन प्रतिनिधि भी होने चाहिए, परन्तु महाराजा ने यह मांग अस्वीकार कर दी। कुछ समय बाद करौली का मत्स्य संघ में विलीनीकरण हो गया।

12. अन्य राज्यों में जन आन्दोलन 

राजस्थान में अनेक राज्य ऐसे थे, जहाँ राजनीतिक चेतना का विकास बीसवीं सदी के दूसरे व तीसरे दशक में हुआ। उनमें थे, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़, सिरोही, शाहपुरा, टोंक, कुशलगढ़। झालावाड़ राज्य ऐसा राज्य था, जहां के राजा स्वयं प्रगतिवादी थे और उन्होने अनेक कदम ऐसे उठाये जिससे जन चेतना में वृद्धि हुई। बांसवाड़ा में भूपेन्द्रनाथ त्रिवेदी, डूंगरपुर में भोगीलाल पंड्या, हरिदेव जोशी, गौरीशंकर आचार्य, शिवलाल कोटडिया, भीखाभाई भील; प्रतापगढ़ में अमृतलाल पायक, चुन्नीलाल प्रभाकर; सिरोही में गोकुल भाई भट्ट आदि ने जन चेतना लाने में अथक प्रयास किए और प्रजामण्डलों की स्थापना की। डूंगरपुर के भोगीलाल पंड्या ने भीलों, चमारों, और अन्य पिछड़ी जातियों में शिक्षा द्वारा जन जागृति लाने का प्रयास किया। सेवा संघ के माध्यम से सामाजिक कुरीतियां तथा अन्धविश्वासों को दूर किया। उन्हीं के प्रयासों से 1945 में डूंगरपुर प्रजामण्डल की स्थापना हुई थी। बांसवाड़ा में भील बाहुल्य इलाके में भूपेन्द्र नाथ त्रिवेदी ने जन जागृति पैदा की। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सभी राज्यों का वृहद् राजस्थान में विलय हो गया।

प्रजामण्डलों का मूल्यांकन :

राजस्थान में प्रजामण्डलों या लोक परिषदों का जन जागृति करने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने अपनी राजनीतिक एवं सामाजिक समस्याओं के प्रति जनता में चेतना उत्पन्न की। प्रारम्भिक अवस्था में यद्यपि इतनी सफलता नहीं मिली, फिर भी कार्यकर्ताओं और नेताओं के प्रयास कम नहीं हुए। राजाओं ने पहले तो प्रजामण्डलों को गैर-कानूनी बताया और नेताओं को जेल में डाल दिया। इससे जनता में और जागृति पैदा हुई। 1921 में राजाओं और नवाबों का केन्द्रीय स्तर पर नरेन्द्र मण्डल बनाया गया। इस संस्था के सुझाव पर राजाओं ने प्रजामण्डलों व लोक परिषदों की स्थापना होने दी। प्रजामण्डलों ने कांग्रेस के कार्यक्रमों को भी अपनाया और आन्दोलनों में भाग लिया। इसमें 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन सबसे प्रमुख है। इससे सारा देश एकता के सूत्र में बंध गया और राजाओं को भी आभास हो गया कि अब लोकतन्त्र का युग आ रहा है और राजतन्त्र व निरंकुशता के दिन चले गए हैं। यही कारण है कि सरदार पटेल के प्रयासों से सभी राजाओं ने अपने राज्यों का भारत संघ में विलीनीकरण स्वीकार कर लिया। प्रजामण्डलों ने ही सामाजिक कुरीतियों की और जनता का ध्यान आकृष्ट किया। इस महान् सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तन लाने का श्रेय प्रजामण्डलों को ही जाता है।

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