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राजस्थान के वस्त्र और आभूषण

राजस्थान के वस्त्र और आभूषण विस्तार से - राजस्थान का इतिहास और संस्कृति कक्षा 10वीं की किताब से

किसी भी क्षेत्र की वेशभूषा वहां की जलवायु, उपलब्ध संसाधनों व संस्कृति से प्रभावित होती है। अगर हम राजस्थान की बात करें तो तमाम आधुनिकता के बाद भी यहाँ की वेशभूषा पर संस्कृति की अमिट छाप बरकरार है। राजस्थानी वेशभूषा की सबसे खास बात है-इसका रंग बिरंगापन ।

वैसे तो सभी रंग राजस्थान में प्रयुक्त होते हैं, पर लाल रंग में जितनी विविधता व जितने प्रकार मिलते हैं, वह अद्भुत है। इसीलिए तो कहा भी गया है कि "मारू थारे देश में उपजै तीन रतन, इक ढोला, दूजी मारवण तीजो कसूमल रंग", (कसूमल अर्थात् लाल)।

राजस्थान के वस्त्र और आभूषण
राजस्थान के वस्त्र और आभूषण 

पुरुष परिधान 

कालीबंगा और आहड़ सभ्यता के काल से ही राजस्थान में सूती वस्त्रों का चलन था। इन स्थानों से उत्खनन में प्राप्त रूई कातने के चक्र और तकली, इस बात के प्रमाण हैं कि उस काल के लोग रूई के वस्त्रों का उपयोग करते थे। जनसाधारण में वस्त्रों का प्रचलन कम था। यह परिपाटी हमें आज भी दिखाई देती है जहां राजस्थान में प्रत्येक गांव में धोती व ऊपर ओढ़ने के "पछेवड़े" के सिवाय अन्य वस्त्रों का प्रयोग कम किया जाता है। सर्दी में अंगरखी का प्रयोग प्राचीन परम्परा के अनुकूल है।

विभिन्न प्रमाणों से ज्ञात होता है कि राजस्थान में पुरुषों में छपे हुए तथा काम वाले वस्त्रों को पहनने का प्रचलन था। सिर पर गोलाकार मोटी पगड़ी पल्लों को लटका कर पहनी जाती थी। धोती घुटनों व अंगरखी जांघों तक होती थी। विविध व्यवसाय करने वालों के परिधानों में भी अंतर था।

राजस्थान में चित्रित अनेक कल्पसूत्र सामान्य व्यक्ति से लेकर राजा-महाराजाओं के परिधान पर अच्छा प्रकाश डालते हैं। इनमें राजाओं के मुकुट और पल्ले वाली पगड़ियां, दुपट्टे, कसीदा की गई धोतियां और मोटे अंगरखे बड़े रोचक दिखाई देते हैं।

मुगलों के सम्पर्क से इन परिधानों में विविधता और परिवर्तन आया। पगड़ियों में विभिन्न शैलियों की पगड़ियां जैसे अटपटी, अमरशाही, उदेशाही, खंजरशाही, शिवशाही, विजयशाही और शाँहजहानी मुख्य हैं। विविध पेशे के लोगों में पगड़ी के पेच और आकार में अंतर था। सुनार आँटे वाली पगड़ी तथा बनजारे मोटी पट्टेदार पगड़ी का प्रयोग करते थे। मौसम के अनुसार रंगीन पगड़ियां पहनने का रिवाज था। मोठड़े की पगड़ी विवाहोत्सव पर, लहरिया श्रावण में, दशहरे पर मदील तथा फूल-पत्ती की छपाई वाली पगड़ी होली पर काम में लाते थे। पगड़ी को चमकीली बनाने के लिए तुर्रे, सरपेच, बालाबन्दी, धुगधुगी, गोसपेच, पछेवड़ी, लटकन, फतेपेच आदि का प्रयोग होता था। उच्च वर्ग के लोग चीरा और फेंटा बांधते थे।

वस्त्रों में पगड़ी का महत्वपूर्ण स्थान था। अपने गौरव की रक्षा के लिए आज भी राजस्थान में यह कहावत प्रचलित है कि "पगड़ी की लाज रखना"। इसका प्रयोग तेजधूप से सिर की रक्षा के साथ-साथ व्यक्ति की सामाजिक स्थिति और धार्मिक भावना को व्यक्त करने के लिए भी किया जाता है। राजस्थान में पगड़ी द्वारा विवाहादि उत्सवों में सम्मान देने की प्रथा आज भी विद्यमान है।

'अंगरखी' जो सामान्य जन का पहनावा था समय के अनुसार परिवर्तित हुई और इसे विविध नामों से पुकारा जाने लगा। 'अंगरखी' को विविध प्रकार तथा आकार में बनाया जाने लगा। जिन्हें तनसुख, दुतई, गाबा, गदर, मिरजाई, डोढी, कानो, डगला आदि कहते थे। सर्दी के मौसम में इनमें रूई भरी जाती थी। शरद ऋतु में कंधों पर खेस, शाल, पामड़ी डाल लिये जाते थे।

अब पुरुष वेशभूषा के मामले में लगभग सम्पूर्ण भारत ने पश्चिमी वेशभूषा को अपना लिया है। पैंट कमीज सर्व स्वीकृत परिधान बन गया है, फिर भी राजस्थान का बन्द गला या जोधपुरी कोट अलग से अपना स्थान बनाए हुए है।

स्त्री परिधान 

जिस प्रकार पुरुष परिधानों के अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं, उसी प्रकार स्त्रियों के परिधानों के प्रमाण भी प्राप्त होते हैं। प्रारंभिक मध्यकाल में स्त्रियां एक विशेष प्रकार का अधोवस्त्र पहनती थी जो अब राजस्थान में घाघरा नाम से प्रचलित है। पूर्व मध्यकाल तक स्त्रियों की वेशभूषा में अलंकरण, छपाई और कसीदे का काम भी प्रचलित हो गया था। राजस्थान की घुमक्कड़ जाति की और आदिवासी स्त्रियों की वेशभूषा में यह परम्परा आज भी देखी जा सकती है। प्रारम्भ में जो अधोवस्त्र कमर में लपेटा जाता था वही कालान्तर में घाघरा और घेरदार कलियों वाला घाघरा बना। इसका छोटा रूप लहंगा है। ऊपर पहने जाने वाले वस्त्रों में कुर्ती विशेष रूप से उल्लेखनीय है। आज भी मारवाड़ में इसका प्रचलन है। कुर्ती के नीचे कांचली अर्थात् बांह वाली अंगिया पहनी जाती थी।

साड़ियों के विविध नाम प्रचलित थे यथा चोल, निचोल, पट, दुकूल, अंसुक, वसन, चीर-पटोरी, चोरसो, ओढ़नी, चूँदड़ी, धोरावाली, साड़ी आदि। चूँदड़ी और लहरिया राजस्थान की प्रमुख साड़ी रही हैं।

स्त्रियों के परिधानों के लिए कई प्रकार के कपड़े प्रचलित थे जिन्हें जामादानी, किमखाब, टसर, छींट, मलमल, मखमल, पारचा, मसरू, चिक, इलायची, महमूदी चिक, मीर-ए-बादला, नौरंगशाही, बहादुरशाही, फरूखशाही छींट, बाफ्ता, मोमजामा, गंगाजली आदि नाम से जाना जाता था।

राजस्थान के वस्त्र उद्योग की प्रमुख विशेषताएं 

सवाई जयसिंह द्वारा स्थापित छत्तीस कारखानों में से कुछ वस्त्रों से संबंधित थे। यथा सींवन खाना, रंगखाना, छापाखाना जहां क्रमशः कपड़े सिले, रंगे एवं छापे जाते थे।

सामान्यतः रंगाई का काम रंगरेज या नीलगर करते हैं। रंगे जाने वाले वस्त्रों में पगड़ियां, साफे, ओढ़नी, घाघरे तथा अंगरखी प्रमुख है। रंगाई के प्रमुख प्रकार पोमचा, लहरिया एवं चूनरी हैं। इनके अलावा रंगरेज चौकड़ी, चौकड़ी का जाल, पतंगा और धनक आदि भाँतें भी रंगते हैं।

पोमचा का अर्थ है कमल फूल के अभिप्राय युक्त ओढ़नी। नवजात शिशु की मां के लिए मातृ पक्ष की ओर से बेटे के जन्म पर पीला पोमचा और बेटी के जन्म पर गुलाबी पोमचा देने की परम्परा है।

श्रावण में विशेषकर तीज के अवसर पर राजस्थान की स्त्रियां लहरिया भांत की ओढ़नी तथा पुरुष लहरिया पगड़ी पहनते हैं। लहरिए एक, दो, तीन, पांच और सात रंगों में बनाए जाते हैं। पांच संख्या शुभमानी जाती है अतः मांगलिक अवसरों पर पंचरंग लहरिया पहना जाता है।

लहरिये की कई भांते प्रचलित थी। 'प्रतापसाही' लहरिया का उल्लेख साहित्य में मिलता है। जयपुर के रंगरेज और नीलगर 'राजाशाही' लहरिया रंगते थे जिसमें चमकदार गुलाबी रंग की आड़ी रेखाएं बनती थी। यदि आड़ी धारियां केवल एक ओर से हो तो वह लहरिया तथा दोनों ओर से एक-दूसरे को काटती हुई आ रही हो तो मोठड़ा कहलाता है। 'समुद्र लहर' का लहरिया जयपुर के रंगरेज रंगते हैं, इसमें चौड़ी-चौड़ी आड़ी धारियां बनती हैं, समुद्र लहर भी दो, तीन, पांच और सात रंगों में बनता है।

'बद्ध' तकनीक में चुनरी के बंधेज सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। कोई भी मांगलिक कार्य चुनरी के बिना अपूर्ण है। 'जोधाणा' अर्थात् जोधपुर की बनी चुनरी के रंग बड़े चमकीले, टिकाऊ और बंधेज बारीक होती है। सीकर (शेखावाटी) के बंधेज की गिनती भी बारीक बंधेजों में होती है।

पहले राजस्थान में 'मलागिरि' (मलयगिरि) अर्थात् भूरे रंग में रंगा हुआ वस्त्र वर्षों तक सुगंधित रहता था। सिटी पैलेस, जयपुर में रखी हुई महाराजा सवाई रामसिंह द्वितीय की अंगरखियां अभी तक सुगंधित हैं। 'अमोवा' का प्रयोग शिकारी करते थे जो खाकी रंग से मिलता-जुलता था।

आज छपाई का काम संपूर्ण राजस्थान में होता है। पीपाड़, जोधपुर एवं पाली में बड़े एवं सशक्त अलंकरण छपते हैं, जिनमें लाल, काले, नीले और हरे रंगों की प्रमुखता रहती है। बाड़मेर अजरख पद्धति से छपे वस्त्रों के लिए विख्यात है। लाल और नीले रंग में छपने वाले अजरख की विशेषता है दोनों ओर की छपाई। इसके अलंकरण ज्यामितीय होते हैं और तुर्की टाइलों से बहुत मिलते हैं। आहड़ और भीलवाड़ा में मुख्य रूप से लाल और काले रंग में चुनरी की छपाई होती है, पर ओढ़नी को आकर्षक बनाने के लिए तोता, मोर या ऐसे ही फूल, पत्ती, पीले, गुलाबी और हरे रंग से बना देते हैं। अकोला में बड़े पैमाने पर छपाई के कारण यह कस्बा 'छीपों का अकोला' कहलाता है। बगरू (जयपुर) अपने स्याह बैगर (काला लाल) छपाई के लिए विख्यात है। जिसमें मटिया रंग की जमीन पर लाल-काले में फूल-पत्ती, पशु-पक्षी और अनेक प्रकार के संयोजन बनाये जाते है।

सांगानेर (जयपुर) में अन्य स्थानों से भिन्न प्रकार के अत्यन्त ही उत्तम प्रकार के सुरुचिपूर्ण अलंकरण छपते हैं। यहाँ के छीपों का प्रमुख योगदान सुन्दर, सौम्य और मोहक रंगों तथा लयात्मक बूटियों में है। पंखुड़ियों के घुमाव, पत्तियों के झुकाव एवं फूलों की बारीकी देखकर प्रतीत होता है कि मानों ठप्पा बनाने वाले खरादी ने इन फूलों का वैज्ञानिक अध्ययन किया होगा।

क्या आप जानते है? 

सांगानेरी हैण्डब्लाक प्रिंट, बगरू हैण्डब्लॉक प्रिंट तथा कोटा डोरिया को हैण्डीक्राफ्ट से संबंधित श्रेणी में भौगोलिक संकेतक प्राप्त हो चुका है। भौगोलिक संकेतक औद्योगिक संपत्ति का एक पहलू है, जो किसी उत्पाद के देश या उत्पत्ति स्थान का हवाला देते हैं। जो ऐसी गुणवत्ता एवं विशिष्टता का आश्वासन देते हैं, जिनका संबंध अनिवार्य रूप से उस परिभाषित भौगोलिक स्थान, क्षेत्र या देश के साथ होता है।

बुनकरों द्वारा उत्कृष्ट कपड़े में कैथून, माँगरोल (बारा) का मसूरिया, तनसुख, मथानियाँ (जोधपुर) की मलमल, बीकानेर-जैसलमेर की ऊन विविध मूल्यवान परिधान बनाने के काम आते थे। टुकड़ी मारवाड़ के देशी कपड़ों में सर्वोत्तम मानी जाती थी। यह जालोर तथा मारोठ कस्बों में अच्छी बनती थी।

वस्त्रों को सजाने के लिए 'चटापटी' के अंतर्गत किसी आकृति को कपड़े में काट कर, दूसरे कपड़े पर टांक दिया जाता था। इसका प्रयोग जानवरों के वस्त्रों-ऊँट, बैल आदि की झूले, बहली, रथ आदि के परदे और तम्बू कनातों को सजाने के लिए किया जाता है।

वस्त्रों को भड़कीला बनाने के लिए गोटा टांकते हैं। सूती ताने पर बादले के बाने से बुनी बेल को गोटा कहते हैं। गोटा, लप्पा, लप्पी, बांकड़ी आदि इसके विविध प्रकार है। चौड़ाई के अनुसार गोटा चौमास्या, आठमास्या आदि प्रकार का होता है। चौड़ा गोटा लप्पा और कम चौड़ाई वाला लप्पी कहलाता है। राजस्थान में सीकर जिले का खण्डेला कस्बा गोटा उद्योग का प्रसिद्ध केन्द्र है।

सीकर व झुंझुनूं की स्त्रियां लाल गोटे की ओढ़नियों पर कशीदे का काम करती हैं, जिनमें ऊँट, मोर, बैल, हाथी, घोड़े बने होते हैं। शेखावाटी में अलग-अलग रंग के कपड़ों को विविध डिजायनों में काट कर कपड़े पर सिलाई की जाती है जिसे पेचवर्क कहते हैं।

वस्त्रों को सजाने के लिए रेशम, कलाबूत और बादले से कढ़ाई की जाती है। पूर्वी एवं दक्षिणी राजस्थान में उल्टी बखिया, चेन और लम्बे छोटे टांकों से बड़ी बारीक ढंग की कढ़ाई होती है। पुरुषों के वस्त्र जामा, चुगा, अंगरखी आदि पर कढ़ाई की जाती है।

पश्चिमी उत्तरी राजस्थान में चमकीले रंग के रेशम से लाल, काले रंग के कपड़े पर मोटे-मोटे टांकों से भराव करके, बीच-बीच में शीशे के टुकड़ों का जड़ाव होता जो वस्त्रों को भड़कीला बना देता है। जैसलमेर, बाड़मेर आदि क्षेत्रों में ऐसी कढ़ाई आज भी प्रचलित है।

आभूषण 

सुंदर दिखाई देना प्रत्येक मनुष्य की चाह है और राजस्थान के निवासी इसके अपवाद नहीं है। स्त्रियों में यह चाह कदाचित पुरुषों की तुलना में थोड़ी अधिक होती है। राजस्थान में प्राचीन काल से आभूषणों के प्रयोग के प्रमाण मिलते हैं। कालीबंगा और आहड़ सभ्यता के काल में स्त्रियां मिट्टी और चमकदार पत्थरों के आभूषण धारण करती थी। कुछ शुंगकालीन मिट्टी के खिलौनों और फलकों से ज्ञात होता है कि स्त्रियां हाथों में चूड़ियां और कड़े, पैरों में खड़वे और गले में लटकन वाले हार पहनती थी। ये सोने, चांदी, मोती और रत्नों से निर्मित थे। निर्धन स्त्रियां कांसा, पीतल, तांबा, कौड़ी, सीप और मूंगे के गहनों से खुद को सजाती थी। हाथी दांत से निर्मित आभूषण भी प्रयुक्त किये जाते थे। 

मध्यकाल तक आभूषणों की बनावट में काफी परिवर्तन आए। तत्कालीन साहित्य और शिल्प में इसकी अनेक बानगियां देखी जा सकती हैं। ओसियां, नागदा, देलवाड़ा, कुम्भलगढ़ आदि की मूर्तियों में कुंडल, हार, बाजूबंद, कंकण, नूपुर, मुद्रिका आदि के अनेक रूप और आकार-प्रकार दृष्टिगत होते हैं। आभूषणों के ये प्रकार वर्तमान काल तक प्रचलित हैं।

स्त्रियों द्वारा सिर पर बांधे जाने वाले गहने को बोर, बोरला, शीशफूल, रखड़ी और टिकड़ा कहा जाता है। कण्ठ में धारण किये जाने वाले आभूषण हैं- थमण्यो, थेड्यो, आड़, मूँठया, झालरा, ठुस्सी। गले में और वक्ष पर धारण किए जाने वाले आभूषणों में तुलसी, बजट्टी, हालरो, हाँसली, तिमणियाँ, पोत, चन्द्रहार, कंठमाला, हमेल, हांकर, मांदल्या, चपकली, हंसहार, सरी, कण्ठी आदि प्रमुख हैं। कानों में पहने जाने वाले आभूषणों में कर्णफूल, पीपलपत्रा, फूल झूमका, अंगोट्या, झेला, लटकन, टोटी आदि और हाथों में कड़ा, कंकण, मोकड़ी (लाख से निर्मित चूड़ी), कात (काँच की चूड़ी), नोगरी, चांट, गजरा, गोखरू, चूड़ी प्रमुख है। इसी प्रकार उंगलियों में बींटी, दामणा, हथपान, छड़ा तथा पांवों में कड़ा, लंगर, पायल, पायजेब, घुंघुरू, नूपुर, झाँझर, नेवरी आदि पहने जाते हैं। नाक में नथ, बेसर, बारी, भोगली, कांटा, चूनी, चोप, भँवरकडी आदि और कमर में कन्दोरा या करधनी पहने जाते है। दांतों में सोने के पत्तर की खोल बनाकर चढ़ाई जाती है जिसे रखन कहते हैं। किसी स्त्री द्वारा दांतों के बीच में सोने की कील जड़वाना चूंप कहलाता है।

राजस्थान में पुरुष भी अनेक प्रकार के आभूषण धारण करते रहे हैं। कानों में मुरकियां, लोंग, झाले, छैलकड़ी, हाथों में बाजूबंद, कड़ा, नरमुख और उंगलियों में अंगूठी, बीठिया व मूंदड़ियां आदि पहनने का जो रिवाज था वो अब काफी कम हो गया है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी ये आभूषण पहने जाते हैं।

बच्चों को भी विविध प्रकार के आभूषण पहनाये जाते हैं। बच्चों के कण्ठ में हँसुली, हाथ और पाँवों में कड़े और कानों में मोती या लूंग पहनाये जाते हैं। हाथ और पाँवों के कड़ों को 'कडूल्या' कहते हैं। पाँवों में पहनाई जाने वाली पतली साँकली जिसमें घूंघरियाँ फाँद दी जाती हैं, 'झाँझर्यो' या 'झाँझरिया' कहलाती है। इसे 'पैंजणी' भी कहते हैं। राती छींतरी में सोने का खेरा, मूँग का आखा और रतचनण बांधकर तैयार किया गया बच्चों के गले या कण्ठ का श्रृंगार, जिससे रत्यावड़ी (गाँठगूमड़े) नहीं हों, 'नजऱ्या' कहलाता है। बच्चों का कान छिदवा करके सोने या जस्ते की 'कुड़क' पहना दी जाती है। बाद में इन्हीं छिद्रों में मोती, लूँग, गुड्दा, मुरकी या बाली आदि आभूषण पहना दिए जाते हैं। ठोस सोने की कुड़क 'मुरकी' कहलाती है।

राजस्थान में आभूषण निर्माण की भी बहुत समृद्ध परम्परा रही है। राजस्थान की राजधानी जयपुर की स्थापना के समय इसके संस्थापक के मनो-मस्तिष्क में आभूषणों की कितनी महत्ता थी इसका भान इस बात से होता है कि उन्होंने जयुपर के प्रमुख बाजार का नाम जौहरी बाजार रखा। यहाँ की सबसे प्रमुख चौपड़ का नाम माणक चौक रखा क्योंकि माणक को रत्नों का सरताज माना जाता है। वर्तमान में जयपुर अपने आभूषणों और रत्न व्यवसाय के लिए विश्व प्रसिद्ध है। राजस्थान के कुछ नगर अपनी विशिष्ट आभूषण निर्माण शैली के लिए भी प्रसिद्ध हैं। नाथद्वारा श्रीनाथजी की नगरी है जो अपने चांदी के आभूषणों 'तारकशी' (धातु के बारीक तारों से निर्मित) के लिए प्रसिद्ध है। इसी प्रकार प्रतापगढ़ की थेवा कला जिसमें कांच के बीच सोने का बारीक काम किया जाता है, पूरे देश में अपनी अलग पहचान रखती है।

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