उत्सव व त्यौहार - राजस्थान में एक कहावत प्रचलित है- 'सात वार, नौ त्यौहार' अर्थात् सप्ताह के सात दिनों में यहाँ नौ त्यौहार होते हैं। यहाँ की स्थानीय संस्कृति की अभिव्यक्ति लोकोत्सवों में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। ये त्यौहार, उत्सव व मेले इस प्रकार रचे गये है कि मौसम, समय तथा लोक भावना सबका संतुलन इनमें दिखाई देता है। अक्सर फसलों की कटाई व बदलते मौसम के साथ संयोजित ये अवसर आमजन को एक नवीन ऊर्जा प्रदान करते हैं। ये उत्सव, त्यौहार और मेले सांसारिक-उलझनों में फँसे लोगों को कुछ समय के लिये शारीरिक एवं मानसिक शांति तथा आनंद प्रदान करते हैं। राजस्थान की इन्द्रधनुषी-संस्कृति की पहचान प्रकट करने वाले कुछ प्रमुख उत्सव, त्यौहार व मेलों की झलक यहाँ प्रस्तुत है -
![]() |
| राजस्थान के उत्सव, त्यौहार और मेले |
गणगौर
गणगौर राजस्थान का एक प्रमुख त्यौहार है। 'गण' अर्थात् शिव, 'गौर' अर्थात् गौरी पार्वती। इस अवसर पर शिव व पार्वती की आराधना द्वारा अविवाहित लड़कियां अपने लिये योग्य वर तथा वहीं विवाहित स्त्रियां अखण्ड सुहाग की कामना करती हैं। यह त्यौहार होली के दूसरे दिन चैत्र कृष्णा प्रतिपदा से लेकर चैत्र शुक्ला तृतीया तक चलता है। इस मौके पर होली की राख के पिण्ड बनाकर जौ के अंकुरों के साथ इनका पूजन किया जाता है। अविवाहित लड़कियां उपवनों से फूलों को कलश में सजाकर गणगौर के गीत गाती हुई इन्हें अपने घर ले जाती हैं।
गणगौर का त्यौहार शिव-पार्वती के रूप में ईसरजी और गणगौर की प्रतिमाओं के पूजन द्वारा मनाया जाता है। जनश्रुति के अनुसार इसका आरम्भ पार्वती के गौने या अपने पिता के घर पुनः लौटने और अपनी सखियों द्वारा स्वागत गान को लेकर हुआ था। इसकी स्मृति में स्त्रियां गणगौर की काष्ठ की प्रतिमाओं को सजा कर मिट्टी की प्रतिमाओं के साथ किसी जलाशय पर जाती हैं। नृत्य और गीतों के साथ मिट्टी की प्रतिमाओं को विसर्जित कर काष्ठ प्रतिमाओं को पुनः लाकर स्थापित करती हैं। इस त्यौहार को जोधपुर, जयपुर, उदयपुर, कोटा रियासतों में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था।
हमेशा से ही गणगौर के अवसर पर गणगौर की सवारी का रिवाज रहा है। उदयपुर की गणगौर की सवारी का कर्नल टॉड ने बड़ा रोचक वर्णन प्रस्तुत किया है, जहाँ अट्टालिकाओं में बैठकर सभी जातियों की महिलाएं, बच्चे और पुरुष रंग-बिरंगे वस्त्रों व आभूषणों से सुसज्जित हो गणगौर की सवारी को देखते थे। यह सवारी तोप के धमाके और नगाड़े की आवाज से राजप्रासाद से प्रारंभ होकर पिछौला झील के गणगौर घाट तक बड़ी धूमधाम से पहुँचती थी और नौका विहार तथा आतिशबाजी के प्रदर्शन के पश्चात् समाप्त होती थी।
तीज
राजस्थान में एक कहावत प्रचलित है- 'तीज त्यौहारा बावरी, ले डूबी गणगौर। अर्थात् त्यौहारों के चक्र की शुरुआत श्रावण माह में तीज से होती है तथा इसका अंत गणगौर से होता है।
वर्षा ऋतु में श्रावण माह में मनाया जाने वाला तीज का त्यौहार राजस्थान की स्त्रियों का सर्वाधिक प्रिय त्यौहार है। श्रावण शुक्ला तृतीया को बालिकाएं एवं नवविवाहिताएं इस त्यौहार को मनाती हैं। यह त्यौहार विवाह के पश्चात् पहली बार पीहर में मनाने की परम्परा है। मान्यता है कि विवाह के बाद के पहले सावन में सास और बहू को एक साथ नहीं रहना चाहिए, इसीलिए ससुराल पक्ष किसी अनिष्ट की आशंका से उसे पीहर भेज देता है।
इस अवसर पर सभी नवविवाहिताएं पेड़ों पर झूला डालकर झूलती हैं तथा साथ में ऋतु तथा श्रृंगार संबंधी गीत भी गाती हैं। तीज से एक दिन पूर्व वे हाथों और पाँवों में मेहन्दी लगाती हैं। तालाबों के किनारों पर मेलों का आयोजन होता है। इस त्यौहार के आस-पास खेतों में मोठ, बाजरा, फली आदि की बुवाई भी शुरू होती है।
राजस्थान में गुलाबी नगर जयपुर का तीज का त्यौहार प्रसिद्ध है। तीज की सवारी में सजे-सजाए हाथी, घोड़े, ऊँट और वर्दी पहने हुए उनके महावत, घुड़सवार आदि तीज की प्रतिमा के साथ जुलूस में चलते हैं। इस त्यौहार का आनंद उठाने के लिए राज्यभर से हजारों की संख्या में लोग आते हैं। राजस्थानी वेशभूषा में लोग राजस्थानी लोकगीत और नृत्य करते नजर आते हैं। इस दृश्य का विदेशी पर्यटक घंटों ठहर कर आनंद उठाते रहते हैं।
क्या आप जानते है?
बूंदी की कजळी तीज तीज का त्यौहार पूरे राजस्थान में जहाँ श्रावणी तीज को मनाया जाता है, बूंदी में यह भाद्रपद कृष्णा तृतीया को मनाया जाता है। इसमें सुसज्जित पालकियों में तीज का उल्लास मय जुलूस मनोरम नवल सागर से शुरु होकर, कुंभा स्टेडियम पर समाप्त होता है।
होली
होली का त्यौहार फाल्गुन पूर्णिमा को पूरे भारत में बड़े उत्साह व उल्लास से मनाया जाता है। ऋतु परिवर्तन और रबी की फसल की कटाई से जनमानस मनोरंजन के लिए उत्साही हो जाता है। इस अवसर पर होलिका की पूजा की जाती है। गोबर के कंडों को एकत्रित करके कुछ कंडों की मालाएं होलिका दहन के लिए समर्पित की जाती हैं। नृत्य, गान और गुलाल से त्यौहार का महत्व प्रदर्शित होता है।
होली पर रंग डालने की परम्परा लगभग सभी जगह एक समान है किंतु कुछ स्थानों पर इसमें विविधता भी दिखाई देती है। भिनाय में कोड़ा मार खेली जाती है जिसमें लोग दो दलों में बंटकर एक दूसरे पर कोड़ों से प्रहार करते हैं। मेवाड़ में उदयपुर, बांसवाड़ा, डूंगरपुर तथा दक्षिणी राजस्थान में आदिवासी लोगों में भगौरिया खेला जाता है। मेवाड़ के अनेक अंचलों में होली के मौके पर गैर नृत्य किया जाता है।
प्रसिद्ध जैन तीर्थ स्थली श्रीमहावीरजी में लट्ठमार होली में महिलाएं हाथों में लट्ठ लेकर पुरुषों पर प्रहार करती हैं। शेखावाटी क्षेत्र में होली के अवसर पर गीन्दड़ नृत्य किया जाता है। बाड़मेर की पत्थर होली में ईलोजी की बारात भी निकाली जाती है जो बाद में रोने-बिलखने में बदल जाती है। इसी से लोगों का मनोरंजन होता है।
जयपुर में पिछले कुछ वर्षों से होली के अवसर पर 'जन्म, मरण और परण' का सभ्य समाज के द्वारा आयोजन होता है। इस कार्यक्रम में बाप की अर्थी, बेटे की बारात तथा पौत्र का जन्म दिखाया जाता है। कोटा के आवां तथा सांगोद कस्बों का दो सौ वर्ष पुराना न्हाण' आयोजन भी प्रसिद्ध है। यहाँ होली पर खेल तमाशों के जरिये मनोरंजन किया जाता है।
अक्षय तृतीया
वैशाख माह की शुक्ल पक्ष की तृतीया को अक्षय तृतीया कहते हैं। अक्षय तृतीया को जन सामान्य 'अबूझ सावे' के रूप में मानते हैं। ग्रामीण अंचलों में बिना मुहूर्त निकलवाये ही इस दिन बड़ी संख्या में बाल-विवाह होते थे जो अब प्रशासन के कड़े रुख व जागरूकता के कारण बहुत कम हो गये हैं। कृषक इस दिन खेतों में हल चलाकर अच्छी वर्षा एवं फसल की कामना करते हैं। बाजरा, गेहूँ, चावल, तिल, जौ इत्यादि सात अन्नों की पूजा की जाती है। इस दिन गेहूं-बाजरे आदि का खीचड़ा, गुड़ की गलवाणी व मंगोड़ी का साग बनाया जाता है। बीकानेर का स्थापना दिवस होने के कारण इसे वहाँ और भी उत्साह के साथ मनाया जाता है।
पूरे देश में मनाए जाने वाले सभी पर्व, त्यौहार आदि राजस्थान में भी उतने ही हर्षोल्लास से मनाए जाते हैं। ऋतु तथा धर्म के परिप्रेक्ष्य में भारतीय जनसामान्य के कई अन्य उत्सव हैं जिनमें रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, नवरात्रि, दशहरा, दीपावली, मकर संक्राति, शरद पूर्णिमा, बसंत पंचमी, नाग-पंचमी आदि प्रमुख हैं।
अन्य त्योहार
इनके अतिरिक्त जैन सम्प्रदाय से संबंधित अनेक उत्सव राजस्थान में बड़ी श्रद्धा के साथ मनाये जाते हैं। जैनों का सबसे पवित्र और महत्वपूर्ण उत्सव पर्यूषण भाद्रपद में मनाया जाता है। श्रावकगण इस मौके पर मंदिर जाकर, पूजन, अर्चन, स्तवन, कीर्तन, व्रत, उपवास आदि प्रक्रियाओं द्वारा आत्म-शुद्धि, संयम एवं नियम का पालन करते हैं। इस उत्सव का अंतिम दिन संवत्सरी कहलाता है। अश्विन कृष्णा प्रतिपदा को क्षमावाणी पर्व के मौके पर सभी श्रावक एक जगह एकत्रित होकर एक-दूसरे से क्षमा याचना करते हैं।
मुसलमानों के उत्सवों में ईदुलजुहा, जिसे बकरा ईद भी कहते हैं, जिलहिज्ज की दसवीं तारीख को इब्राहम द्वारा अपने प्रिय पुत्र इस्माइल की कुर्बानी की याद में मनाया जाता है।
मुहर्रम के गमी के मौके पर वे दस दिन तक उपवास रखते हैं और अंतिम दिन मुहम्मद साहब के नाती हुसैन इमाम की कुर्बानी के उपलक्ष में ताजिये निकालते हैं। शबेरात का त्यौहार बड़ी खुशी का होता है। ऐसा माना जाता है कि उस दिन सभी मानवों के कर्मों की जांच होकर उनके कर्मों के अनुसार उनके भाग्य का निर्धारण किया जाता है। मुहम्मद साहब के पवित्र जन्म एवं मरण की स्मृति में बारावफात का त्यौहार मुस्लिम समाज बड़ी श्रद्धा से मनाता है। रमजान की समाप्ति का दिन इदुल-फितर कहलाता है, जिस दिन नई पोशाक में मुस्लिम समाज आपसी मेल-मिलाप करता दिखाई देता है।
ईसाई उत्सवों में पहली जनवरी, ईस्टर, गुड फ्राइडे, क्रिसमस डे आदि प्रमुख हैं जिन्हें लोग गिरजाघरों एवं ईसाइयों के निवास स्थान में बड़े उल्लास से मनाते हैं।
इन प्रमुख लोकोत्सवों के अतिरिक्त महापुरुषों की जयन्ती, व्रत तथा उपवास के अवसर पर भी उत्सव मनाये जाते हैं। इनमें महावीर जयन्ती, नृसिंह जयन्ती, हनुमान जयन्ती, बुद्धजयन्ती आदि मुख्य हैं। व्रत के उत्सवों में अमावस्या व्रत, वट सावित्री व्रत, निर्जला एकादशी, देवझूलनी एकादशी, हरितालिका तीज, पवित्रा चतुर्दशी, ऋषि पंचमी, अनन्तचतुर्दशी, गोपाष्टमी, आंवला एकादशी आदि प्रमुख हैं।
मेले
मेले का अर्थ है- एक स्थान विशेष पर जनसमूह का मिलना और उत्सवों का मनाना। लोक जीवन पूरी सक्रियता से मेलों तथा त्यौहारों के आयोजन में शामिल होता है। इससे यहाँ की लोक-संस्कृति जीवंत हो उठती है। इन उत्सव, त्यौहारों एवं मेलों के अपने गीत और अपनी संस्कृति हैं।
प्रायः इन मेलों और त्यौहारों के मूल में धर्म होता है। किंतु कई मेले और त्यौहार अपने सामाजिक और आर्थिक महत्त्व के कारण अधिक प्रसिद्ध हैं। अजमेर में पुष्करजी का मेला, अन्नकूट पर नाथद्वारा का मेला, सवाईमाधोपुर के शिवाड़ क्षेत्र में शिवरात्रि का मेला, चुरू जिले में सालासर हनुमानजी का मेला, नागौर में गोठ मांगलोद में दधिमति माता का मेला, उदयुपर के पास चारभुजा का मेला, करौली में कैलादेवी का मेला, एकलिंगजी में शिवरात्रि का मेला, केसरियाजी का धुलेव का मेला, अलवर के पास भर्तृहरि का मेला आदि धर्म-प्रधान मेले हैं।
डूंगरपुर का बैणेश्वर का मेला, बाँरा जिले की शाहबाद तहसील का सहरियों का सीताबाड़ी मेला आदि आदिवासियों के मेलों का प्रतिनिधित्व करते हैं। परबतसर में तेजाजी का मेला, पोकरण के रूणीचा में रामदेवजी का मेला, कोलूगढ़ में पाबूजी का मेला, ददेरवा में गोगाजी का मेला आदि लोक नायकों के मेले हैं। मौसमी मेलों में तीज, गणगौर आदि के मेले प्रमुख हैं। प्रमुख मेलों का संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत है-
पुष्कर का मेला
अजमेर जिले का पुष्कर हिन्दुओं की आस्था का एक प्रमुख केन्द्र है। पूरे भारत में यही ब्रह्माजी का एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसमें उनकी विधिवत पूजा होती है। इसी मंदिर के पीछे की पहाड़ियों पर सावित्री माता का मंदिर भी है। पुष्कर में लगने वाला कार्तिक माह की पूर्णिमा का मेला अपनी विशालता के कारण अनुपम माना जाता है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार प्राचीन समय में पुष्कर में विज्रनाथ नामक एक राक्षस था। जिसने पुष्कर में आतंक मचा रखा था। इस राक्षस द्वारा ब्रह्माजी की संतानों की हत्या की बात जब स्वयं ब्रह्माजी को ज्ञात हुई तो उन्होंने प्रकट होकर कमल के फूल से राक्षस का संहार किया। कमल की पंखुड़ियां जिन तीन स्थानों पर गिरी वहाँ झीलें बन गई- ज्येष्ठ पुष्कर कनिष्ठ और मध्यम पुष्कर। इनमें ज्येष्ठ पुष्कर का ही महात्म्य अधिक है। तत्पश्चात् ब्रह्माजी ने इसी स्थान पर एक यज्ञ का आयोजन किया। जिसमें समस्त देवी-देवताओं और ऋषि-मुनियों को आमंत्रित किया। यह यज्ञ कार्तिक मास में सम्पन्न हुआ था।
पुष्कर में कार्तिक माह में दीपदान की परम्परा अत्यन्त महत्वपूर्ण और पौराणिक है। इसी समय पशु मेला भी लगता है। विदेशी पर्यटक भी इस समय बड़ी संख्या में यहाँ आते हैं। रंग-बिरंगे वस्त्रों में जनसमुदाय, गेरुए वस्त्रों में भस्म लपेटे साधु, हजारों मवेशी और खूबसूरत जीनों से सजे ऊँट-इन सबसे सुसज्जित पुष्कर मेला अत्यंत आकर्षक और जीवंत दृश्य उपस्थित करता है।
जीणमाता का मेला
सीकर जिले के रेवासा ग्राम में पहाड़ी की तलहटी में जीणमाता मंदिर अवस्थित है। इस मंदिर का निर्माण विक्रम संवत् 1121 में मोहिल के हठड़ द्वारा करवाया गया। यहाँ माता की अष्टभुजी प्रतिमा है। इसके सामने घी और तेल के दो दीपक अखण्ड रूप से कई सौ वर्षों से प्रज्ज्वलित हैं हैं। माना जाता नाता है कि इन दीपकों की ज्योतियों की व्यवस्था दिल्ली के चौहान राजाओं ने शुरु की थी।
जीणमाता के संबंध में जनश्रुति है कि यहाँ हर्ष और जीण भाई-बहन थे। इनके माता-पिता का बचपन में स्वर्गवास हो गया था। भावज के तानों से दुःखी होकर जीण अपने भाई का घर छोड़कर रैवासा की पहाड़ियों पर तप करने आ गई। जब हर्ष को इस बात का पता चला तो उसने जीण से घर लौटने का आग्रह किया। जब जीण किसी भी प्रकार घर आने को तैयार नहीं हुई तो हर्ष भी उसी के साथ इस स्थान पर देवी को प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या करने लगा। अंत में देवी साक्षात हुई और आज तक वहाँ विद्यमान है।
राजस्थान के अलावा अन्य राज्यों से भी लाखों तीर्थ यात्री मनोकामना पूर्ति हेतु यहाँ आते हैं। चैत्र और अश्विन माह में नवरात्रों के समय यहाँ विशेष चहल-पहल हो जाती है
खाटूश्यामजी का मेला
सीकर जिले में स्थित खाटूश्यामजी का मंदिर बहुत ही विख्यात है। जिला मुख्यालय से करीब 50 किमी. दूरी पर स्थित श्रीकृष्ण के ही एक स्वरूप श्रीश्यामजी के इस मंदिर में वर्ष भर भक्तों की भीड़ लगी रहती है। शीश के दानी के रूप में विख्यात श्रीश्यामजी के मंदिर में फाल्गुन के शुक्ल पक्ष की दशमी से द्वादशी तक वार्षिक मेला लगता है। इस मंदिर के निकट स्थित श्याम बगीचा और श्याम कुण्ड भी दर्शनीय हैं।
भर्तृहरि का मेला
अलवर से 40 किमी. दूर भर्तृहरि नामक स्थान पर वर्ष में दो बार वैशाख और भाद्रपद में लक्खी मेला आयोजित होता है। हाथों में चिमटा कमण्डल, शरीर पर राख लपेटे लम्बी दाढ़ी और लम्बे बालों वाले सैकड़ों कनफटे बाबाओं से यह स्थान लघु कुंभ के रूप में जीवंत हो उठता है। जनश्रुति है कि गोपीचन्द भर्तृहरि बहुत बड़े राजा थे। उनकी पत्नी रानी पिंगला अत्यंत सुंदर थी। किन्हीं कारणों से राजा के मन में विरक्ति आने पर उन्होंने अपना राजपाट त्याग कर सन्यास ले लिया। भर्तृहरि को यह जंगल बहुत भाया और वे मृत्यु पर्यन्त यहीं रहे। यहीं उनकी समाधि भी है।
डिग्गी के कल्याण का मेला
जयपुर से करीब 75 किमी दूर टोंक जिले की मालपुरा तहसील में डिग्गीपुरी में भगवान विष्णु के स्वरूप राजा कल्याणजी का श्रावण माह की अमावस्या को मेला लगता है।
डिग्गी के बारे में जनश्रुति है कि इन्द्र ने अपने दरबार की अप्सरा उर्वशी को किसी बात पर क्रोधित होकर बारह वर्ष के लिए मृत्यु लोक में रहने का दण्ड दिया। उर्वशी मृत्युलोक में आकर रहने लगी। यहाँ वह चंद्रगिरि के राजा के उद्यान में घोड़ी का रूप धारण कर रात भर चरा करती थी। क्रोधित चंद्रगिरि के राजा ने एक दिन घोड़ी का पीछा कर उसे पकड़ लिया। घोड़ी ने सुंदरी का रूप धर लिया। राजा डिग्व उर्वशी पर मोहित हो उसे अपने महल लाने के लिए आतुर हो गया। उर्वशी ने साथ चलने के लिए एक शर्त रखी कि दण्ड समाप्ति पर इन्द्र जब उसे लेने आये तो वह उसे बचायेगा। यदि वह नहीं बचा पाया तो वह उन्हें शाप दे देगी। दण्ड की समाप्ति पर इन्द्र उर्वशी को लेने के लिए मृत्यु लोक में आये। राजा डिग्व के प्रतिरोध करने पर इन्द्र ने भगवान विष्णु की सहायता से उसे हरा दिया और उर्वशी को ले गये। उर्वशी ने राजा को शाप दिया कि वह कोढ़ी बन जाये। भगवान विष्णु को राजा डिग्व पर दया आयी और उन्होंने राजा को कुष्ठ से निवारण का उपाय बताया। उन्होंने कहा कि कुछ समय बाद में उनकी एक प्रतिमा पास के समुद्र से बहती हुई आयेगी जिसके दर्शन से राजा का रोग मिटेगा। कालान्तर में वह प्रतिमा आई और उसके दर्शन मात्र से राजा का रोग मिट गया। चूंकि भगवान विष्णु ने राजा डिग्व का कुष्ठ रोग से कल्याण किया था, इसीलिए इस मंदिर का नाम कल्याण मंदिर पड़ा।
श्री महावीरजी का मेला
करौली जिले की हिन्डौन तहसील में गंभीर नदी के किनारे पर अवस्थित चंदनगांव (श्री महावीरजी) में महावीर स्वामी की स्मृति में प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ला त्रयोदशी से वैशाख कृष्णा प्रतिपदा तक लक्खी मेला भरता है। यह जैनों का सबसे बड़ा मेला है। जनश्रुति है कि किरपादास नामक चर्मकार एक टीले पर अपने पशु चराया करता था। वर्तमान में यह टीला उसके नाम से जाना जाता है। एक बार उसकी एक गाय ने कई दिनों तक दूध नहीं दिया। कारण जानने के लिए उस गाय का पीछा करने पर उसने देखा कि गाय एक टीले पर स्वतः अपना दूध गिरा रही है। टीले को खोदने पर उसे वहाँ से गहरे लाल रंग की एक भव्य प्रतिमा मिली। किरपादास ने उस प्रतिमा को एक झोंपड़ी में रख दिया। बसवा के जैन अमरचंद बिलाला ने महावीरजी की इस प्रतिमा को सर्वप्रथम पहचाना और मंदिर बनवाने के लिए बड़ी रकम दान दी।
आज भी जब मेले का शुभारंभ होता है तो रथ यात्रा से पूर्व रथ को पहले उस चर्मकार के वंशजों का हाथ लगवाना पहली परम्परा है। श्री महावीरजी का यह मेला अपने आप में अनूठा और सर्वधर्म का अद्वितीय आयोजन है।
करणी माता का मेला
बीकानेर जिले की नोखा तहसील के देशनोक में बीकानेर के राठौड़ राजघराने की कुल देवी 'करणी माता' का मंदिर स्थित है। यह 'चूहों के मंदिर' के नाम से विख्यात है। यहाँ चूहे लोगों से बिना भयभीत हुए स्वतंत्र विचरण करते हैं। यहाँ प्रतिवर्ष चैत्र एवं अश्विन नवरात्रा में मेलों का आयोजन होता है।
शीतला माता का मेला
जयपुर जिले में चाकसू तहसील के शील की डूंगरी गांव में चैत्र कृष्णा सप्तमी अष्टमी को शीतला माता का मेला भरता है। शीतला माता का मंदिर पहाड़ी पर स्थित है, जिसका निर्माण जयपुर के महाराज माधोसिंह ने करवाया था। 'बैलगाड़ी मेले' के नाम से प्रसिद्ध इस मेले में दूर-दूर से ग्रामीण रंगीन कपड़ों में सजे, अपनी सुसज्जित बैलगाड़ियों से आते हैं। इस अवसर पर पशु मेला भी लगता है।
शीतला माता मातृरक्षिका देवी के रूप में पूजित है। इसे उत्तर भारत में 'महामाई', पश्चिम भारत में 'माई अनामा' और राजस्थान में सेढ़, शीतला तथा सैढ़ल माता के रूप में जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि माता की रुष्टता के कारण ही चेचक का प्रकोप होता है।
कैलादेवी का मेला
करौली जिले में त्रिकूट पर्वत की घाटी में कैलादेवी का भव्य मंदिर है। यहाँ चैत्र शुक्ला अष्टमी को मेला भरता है। मेले में बड़ी संख्या में भक्तों के आने के कारण इसे लक्खी मेला भी कहते हैं। कैलामाता के मंदिर में दो मूर्तियां हैं। दाहिनी तरफ कैला देवी की मूर्ति है जिन्हें लक्ष्मी नाम से भी जाना जाता है। बायीं तरफ चामुंडा माता की मूर्ति है। कैलादेवी के मंदिर के सामने ही हनुमानजी का मंदिर भी है जिन्हें स्थानीय लोग लांगुरिया कहते हैं।
लोककथा के अनुसार जब कंस ने वासुदेव और देवकी को कारागृह में डाल दिया तो वहीं पर देवकी ने एक बालिका को जन्म दिया। कंस ने जब उस नवजात बालिका को मारना चाहा तो वह हाथ से छूट कर आकाश की ओर उड़ गई। यही योगमाया जब पृथ्वी पर अवतरित हुई तो कैलादेवी के नाम से प्रसिद्ध हुई।
कपिल मुनि का मेला
बीकानेर जिले के कोलायत में कार्तिक पूर्णिमा को कपिल मुनि का मेला भरता है। स्कंद पुराण के अनुसार महर्षि कर्दन ब्रह्मा के पुत्र थे। उनका विवाह महर्षि मनु की पुत्री से हुआ था, जिनसे कपिल मुनि का जन्म हुआ। कपिल मुनि उच्च धार्मिक ज्ञान प्राप्त कर हिमालय में निवास करने लगे। अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने एक नखलिस्तान देखा। इसकी सुंदरता से मोहित होकर उनकी आत्मा का एक भाग वहीं रहकर दुनिया के लिए तप करने लगा और शेष भाग हिमालय चला गया। उस नखलिस्तान को बाद में कपिलस्तान कहा जाने लगा। समयांतर पर यह स्थान विख्यात हो गया और अनेक भक्तगण यहाँ आने लगे। लेकिन देवताओं ने ईर्ष्यावश इसे रेगिस्तान में छिपा दिया। शिव पार्वती के पुत्र स्कंददेव ने दुःखी मानवता की सहायता हेतु इस स्थान को फिर से खोज निकाला। इस पवित्र झील में स्नान का अत्यधिक महत्व है। माना जाता है कि इससे भक्तों के पाप कट जाते हैं।
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का उर्स, अजमेर
सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती 1192 में ईरान से भारत आए थे और अपना शेष जीवन अजमेर में बिताया। 'गरीब नवाज' के नाम से जाने वाले ख्वाजा साहब ने अपना संपूर्ण जीवन मानवता की सेवा में समर्पित कर दिया। अजमेर में उनकी मजार पूरी दुनिया के मुस्लिम धर्मावलम्बियों की आस्था का प्रमुख केन्द्र है। इस्लामिक कैलेण्डर के अनुसार रजब माह की पहली से छठी तारीख तक अजमेर में ख्वाजा साहब का उर्स मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि निन्यानवें वर्ष की आयु में रजब की छह तारीख को ख्वाजा मोहनुद्दीन चिश्ती ने अनुभव किया कि अब महबूबे हकीकी से मिलने का वक्त आ गया है। जब ख्वाजा साहब छह दिन तक हुजरे से बाहर नहीं आए तो खदिम भीतर गए। वहाँ उन्होंने पाया कि ख्वाजा साहब की रूह जिस्म से परवाज कर गई है। इसी की याद में प्रतिवर्ष उर्स मनाया जाता हैं।
इस उर्स के दौरान जायरीन उनकी मजार पर फातिया पढ़कर चादर भी चढ़ाते है। अकबर द्वारा निर्मित अकबरी मस्जिद तथा महफिलखाने में कव्वालियों का कार्यक्रम होता है। उर्स चाँद दिखाई देने पर दरगाह शरीफ के बुलन्द दरवाजे पर झण्डा फहराने के साथ प्रारम्भ होता है। रजब की छठी तारीख को कुल की रस्म में जायरीनों पर गुलाब जल के छींटे मारे जाते हैं। इसके तीन दिन बाद नवीं तारीख को बड़े कुल की रस्म अदा की जाती है। उर्स के दौरान अकबर व जहांगीर द्वारा क्रमशः प्रदत्त बड़ी देग व छोटी देग में चावल पकाकर तबर्रुक यानि प्रसाद बांटा जाता है।
ख्वाजा साहब का यह उर्स संपूर्ण भारत में मुस्लिम समुदाय का कदाचित सबसे बड़ा मेला है जो सर्वधर्म समभाव की अनूठी मिसाल पेश करता है।
गलियाकोट का उर्स
डूंगरपुर जिले की सागवाड़ा तहसील के गलियाकोट कस्बे में संत सैयद फखरुद्दीन की मजार है। यह दाऊदी बोहरा सम्प्रदाय की आस्था का प्रमुख केन्द्र है। इसे मजार-ए-फखरी भी कहते है। मुहर्रम की 27वीं तारीख को होने वाले उर्स के मौके पर मजार शरीफ को फूलों से सजाया जाता है और दीपक प्रज्ज्वलित किये जाते हैं। सामूहिक इबादत होती है तथा कुरान शरीफ का पाठ किया जाता है।
बेणेश्वर का मेला
बेणेश्वर मेला राजस्थान के 'आदिवासियों का कुंभ' कहलाता है। इस मेले में आदिवासी संस्कृति के तमाम रंग दिखाई देते है। यह मेला माघ पूर्णिमा (शिवरात्रि) के अवसर पर डूंगरपुर जिले की आसपुर तहसील के नवातपुरा नामक स्थान पर भरता है।
बेणेश्वर नाम भगवान शिव के लिंग पर आधारित है। जनश्रुति है कि यह शिवलिंग स्वयं उद्भूत हुआ। यह स्वयंभू शिवलिंग पाँच स्थानों पर से खण्डित है। इसके बारे में एक कथा प्रचलित है कि नवातपुरा गाँव से एक गाय प्रतिदिन शिव मंदिर में आती और शिवलिंग पर दुग्धाभिषेक कर चली जाती थी। एक दिन ग्वाला परेशान होकर गाय के पीछे चला आया। पीछा करते हुए वह शिव मंदिर पहुंचा जहां गाय को लिंग पर दुग्धाभिषेक करते हुए ग्वाले ने देख लिया। फलतः वह वहाँ से भागी। भागने के प्रयास में खुर से लिंग को धक्का लगा जिससे यह पाँच हिस्सों में टूट गया। यह आश्चर्यजनक है कि टूटने के बावजूद भी इसकी पूजा होती है, क्योंकि टूटी प्रतिमा की पूजा नहीं की जाती है।
इन पारम्परिक मेलों के अतिरिक्त राष्ट्रीय दशहरा मेला कोटा, सरस मेला (हस्तशिल्प), अंतर्राष्ट्रीय पतंग महोत्सव, धुलण्डी उत्सव, हाथी महोत्सव, तीज व गणगौर मेला, जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल (साहित्यिक उत्सव)-जयपुर, आभानेरी उत्सव-दौसा, थार महोत्सव-बाड़मेर, ऊँट उत्सव-बीकानेर, मरू महोत्सव-जैसलमेर, मारवाड़ उत्सव-जोधपुर, रणकपुर उत्सव, गोड़वाड़ मेला-पाली, ग्रीष्म व शरद समारोह-माउंट आबू, मेवाड़ समारोह-उदयपुर, मीरां महोत्सव-चित्तौड़गढ़, मत्स्य उत्सव-अलवर, चंद्रभागा मेला-झालावाड़ भी बहुत बड़ी संख्या में पर्यटकों को आकृष्ट करते हैं।
क्या आप जानते हैं?
जयपुर के पास भावगढ़ बंध्या गांव में खलकाणी माता गर्दभ मेला आयोजित किया जाता है। इस मेले में गधों और खच्चरों के अतिरिक्त अन्य कोई जानवर नहीं होता। कहा जाता है कि मेले की शुरुआत 500 वर्ष पहले कछवाहों ने चन्द्रा मीणा को युद्ध में हराने की खुशी में की थी।
