भारत के इतिहास में राजस्थान का विशेष स्थान उसकी अनूठी शौर्य परम्परा के कारण रहा है। राजस्थान की भूमि अपने वीर सपूतों के लिए प्रसिद्ध रही है। यह शौर्य जहां एक ओर प्राचीन समय में घटित हुए सभ्यतामूलक विकास में देखा जा सकता है, वहीं मध्य युग और आधुनिक युग में बाहरी आक्रमणों के समय स्थानीय शासकों एवं जनसाधारण द्वारा किए गए संघर्षों में भी दिखलाई देता है। यहां के महल, किले और अन्य ऐतिहासिक इमारतें, यहां के वीरों के अदम्य साहस की गाथाएँ कहते हैं। राजस्थान की इस शूरवीरता को प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासविद् जेम्स टॉड ने इन शब्दों में उभारा कि, "राजस्थान में कोई छोटा-सा राज्य भी ऐसा नहीं है, जिसमें थर्मोपली जैसी रणभूमि न हो और शायद ही ऐसा कोई नगर ना मिले जहाँ लियोनिदास जैसा वीर पुरुष पैदा नहीं हुआ हो।"
राजस्थान में आरम्भ से ही रियासती और सामंती संघर्ष इतने ज्यादा रहे कि यहां युद्धों का एक लम्बा सिलसिला देखने को मिलता है। राजस्थान के शासकों ने तुर्की, दिल्ली सल्तनत के शासकों, सिंध से आए आक्रमणकारियों, बंगाल के पाल शासकों, दक्षिण के चालुक्यों, पूर्व के चंदेलों और गहडवालों के तथा मराठों के विरुद्ध अनेक संघर्ष किए। तराइन, खानवा और हल्दी घाटी सरीखे इतिहास प्रसिद्ध युद्ध राजस्थान के शासकों द्वारा लड़े गए, जिनसे पृथ्वीराज चौहान, राणा सांगा और महाराणा प्रताप जैसे वीर शासकों के शौर्य का अंदाजा होता है।
राजस्थान की आम जनता में स्वामीभक्ति की एक महत्त्वपूर्ण परम्परा होने से जनता ने अपने स्वामी अथवा शासक की रक्षा के लिए युद्धभूमि में अपने प्राणों की आहुति दी है। राजस्थान का इतिहास स्वामीभक्ति के चलते अपने प्राणोत्सर्ग करने वाले अनेक वीरों की गाथाओं से भी भरा पड़ा है। इस संदर्भमें पन्ना धाय, चंदन और कीरतबारी की शौर्यगाथा के साथ ही चेतक का बलिदान, महाराणा प्रताप के सेनापति हकीम खाँ सूरी की वीरता, भामाशाह की स्वामीभक्ति और दुर्गादास राठौड़ की वीरता का पता चलता है। जेम्स टॉड ने लिखा है कि "राजस्थान की भूमि में ऐसा कोई फूल नहीं उगा, जो राष्ट्रीय वीरता और त्याग की सुगंध से भरकर नहीं झूला हो।"
कवि प्रदीप ने भी राजस्थान की इस शूरवीरता को रेखांकित करते हुए अपने प्रसिद्ध गीत 'आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की' में लिखा है:
'ये है अपना राजपूताना नाज इसे तलवारों पे,
इसने अपना सारा जीवन काटा बरछी तीर कमानों पे,
ये प्रताप का वतन पला है आजादी के नारों पे,
कूद पड़ी थी यहाँ हजारों पद्मिनियाँ अंगारों पे,
बोल रही है कण कण से कुरबानी राजस्थान की,
इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की।'
अंग्रेजी शासनकाल में साम्राज्यवादी शासन के विरुद्ध संघर्ष में भी राजस्थान के लोगों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। 1857 की क्रांति की ज्वाला राजस्थान में भी धधकी और नसीराबाद, आउवा और कोटा में राजस्थान के वीर सपूतों ने अंग्रेजी सेना के साथ जबर्दस्त संघर्ष किया। शाहपुरा, भीलवाड़ा के बारहठ परिवार ने अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति में अपना अमूल्य योगदान दिया। 1912 ई. में लॉर्ड हार्डिंग को मारने के प्रयास में हुए दिल्ली बम कांड में प्रतापसिंह और जोरावरसिंह बारहठ की महत्वपूर्ण भूमिका रही। अंग्रेजों के साम्राज्यवादी शासन के दौर में राजस्थान शेष भारत के समान ही गांधी के अहिंसात्मक तथा सर्वोदयी आंदोलनों का केन्द्र बना, जिनमें राजस्थान की जनता ने अभय होकर भाग लिया। गांधीजी के नेतृत्व में चल रहे स्वाधीनता आंदोलनों में राजस्थान के अलग-अलग हिस्सों में प्रजामंडलों की स्थापना हुई, जिन्होंने अहिंसक तरीके से अंग्रेजों के साम्राज्यवादी शासन के विरुद्ध राजस्थान के लोगों को एकत्रित किया।
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जब यहां के शासक अपनी स्वाधीनता-चेतना को विस्मृत कर अंग्रेजों की ओर झुकाव रखने लगे और उनके साथ मिलकर किसानों का दोहरा शोषण करने लगे, तब किसानों ने संगठित होकर स्थानीय जमींदारों के विरुद्ध संघर्ष किया। इस संदर्भ में बिजौलिया किसान आंदोलन और बेगूं किसान आंदोलन महत्त्वपूर्ण थे। स्थानीय आदिवासियों की वीर गाथा भी कुछ कम नहीं हैं। 1883 ई. में गुरू गोविन्द गिरि ने सम्प सभा की स्थापना कर दक्षिण राजस्थान के भील और गरासियों को एकत्रित कर उनमें जागृति उत्पन्न की तथा उनमें सुधार की अलख जगाई, तो स्थानीय सामंत और अंग्रेज घबरा गए। इसकी परिणति यह हुई कि 1913 में मानगढ़ की पहाड़ी पर सम्प सभा के 1500 से भी अधिक आदिवासियों को अंग्रेजों ने घेरकर मार डाला। गुरू गोविन्द गिरि के बाद मोतीलाल तेजावत ने मेवाड़ क्षेत्र के आदिवासियों को बेगार, अनुचित लगानों और भारी भूमि कर के उन्मूलन के लिए एकत्रित किया। इससे पूर्व 1840 ई. में बनी मेवाड़ भील कोर ने 1857 ई. के विद्रोह में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
संक्षेप में कहा यह जा सकता है कि राजस्थान के कण-कण में स्वाधीनता की चेतना समाज के विभिन्न वर्गों में आरम्भ से ही विद्यमान रही है और जब-जब इस स्वाधीन चेतना को आंतरिक अथवा बाह्य किसी भी प्रकार की चुनौती मिली, यहाँ की जनता ने उसका वीरतापूर्ण तरीके से मुकाबला किया है। इन वीरतापूर्ण संघर्षों का अध्ययन हम पूर्व के अध्यायों में कर चुके हैं। इस अध्याय में हम स्वतंत्रता पश्चात राजस्थान की शौर्य परम्परा के विकास को समझने का प्रयास करेंगे।
स्वतंत्रता पश्चात राजस्थान में शौर्य-परम्परा की निरंतरता :
आजादी के बाद राजस्थान के नौजवान रणबांकुरों ने भारत की सेना में भर्ती होकर राजस्थान के शौर्य एवम् साहस की परम्परा को आगे बढ़ाया है। राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अनेक बार यहां के सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी है। यह बात यहां के रणबांकुरे सैनिकों को मिले सैन्य पदकों, अलंकरणों और पुरस्कारों से अभिव्यक्त होती है।
राजस्थान के परमवीर चक्र विजेता प्रमुख वीर सेनानी :
परमवीर चक्र भारत का सर्वोच्च शौर्य सैन्य अलंकरण है। यह मुख्यतः दुश्मनों की उपस्थिति में उच्च कोटि की शूरता, त्याग और बलिदान के लिए प्रदान किया जाता है। राजस्थान के शहीद मेजर पीरू सिंह शेखावत को 1952 में और शहीद मेजर शैतान सिंह को 1963 में मरणोपरांत परमवीर चक्र से नवाजा गया। यहाँ हम इन दोनों बहादुरों की शौर्य गाथा की चर्चा करेंगे।
शहीद मेजर पीरू सिंह शेखावत :
आजादी के तुरन्त पश्चात अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान ने कबाईलियों के माध्यम से कश्मीर पर आक्रमण किया। इस युद्ध में दुश्मनों से लोहा लेते हुए राजस्थान के शेखावटी क्षेत्र के वीर सेनानी मेजर पीरू सिंह शेखावत शहीद हो गए। मेजर पीरू सिंह शेखावत का जन्म 20 मई 1918 को गांव रामपुर बेरीए, जिला झुंझुनू में हुआ था। 1936 में वे राजपूताना रायफल्स में भर्ती हुए।
1948 की गर्मियों में कबाईलियों और पाकिस्तानी सेना ने संयुक्त रूप से कश्मीर के टीथवाल सेक्टर पर आक्रमण किया। इस हमले पर दुश्मन पहाड़ी पर जमा थे, उस पहाड़ी पर कब्जा करने का कार्य 6 राजपूताना रायफल्स को सौंपा गया, जिसकी अगुवाई पीरू सिंह शेखावत कर रहे थे। आधे से ज्यादा साथियों के शहीद होने के उपरांत भी पीरू सिंह उस मीडियम मशीनगन की ओर बढ़े, जो उनके साथियों पर मौत बरसा रही थी। उन्होने मशीनगन चला रही दुश्मन सेना के सभी सैनिकों को मारकर उस पोस्ट पर कब्जा कर लिया। वे दूसरी मशीनगन की ओर बढ़ रहे थे, तभी एक बम उन पर गिरा और वे घायल हो गए। घायल अवस्था में भी उन्होंने दुश्मन देश के सैनिकों को मारना जारी रखा। अंततः 18 जुलाई 1948 को वे शहीद हो गए। उनकी इस वीरता और बलिदान के लिए उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च सैनिक सम्मान "परमवीर चक्र" से नवाजा गया।
शहीद मेजर शैतान सिंह :
1961-62 में हमारे पड़ोसी देश चीन ने भारत पर हमला किया। भारत ने न्यूनतम संसाधनों के उपरांत भी यह लड़ाई बहादुरी के साथ लड़ी। इसमें भारत के कई जांबाज सैनिक शहीद हुए। राजस्थान के मेजर शैतान सिंह भी इनमें से एक हैं। मेजर शैतान सिंह का जन्म 01 दिसम्बर 1924 को जोधपुर में हुआ।
1962 के युद्ध में मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में 13वीं कुमायूंनी बटालियन की सी कंपनी रेजांग ला दर्रे में चीनी सैनिकों का मुकाबला कर रही थी। 18 नवम्बर 1962 को पहली खेप में 350 चीनी सैनिकों ने और दूसरी खेप में 400 चीनी सैनिकों ने हमला बोला, किन्तु मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में भारतीय सेना ने मुंह तोड़ जवाब दिया। इस हमले में घायल होने के उपरांत भी वे एक पोस्ट से दूसरे पोस्ट पर जाकर सैनिकों का हौंसला बढ़ाते रहे। उनकी सामरिक सूझबूझ और साहसिक नेतृत्व के कारण भारत के सैनिकों ने 1000 से भी अधिक चीनी सैनिकों को मार गिराया। किन्तु इस संघर्ष में मेजर शैतान सिंह वीर गति को प्राप्त हुए। उनके बारे में प्रसिद्ध है कि इस संघर्ष में उनके दोनों हाथ लहुलुहान हो गए, तो भी मशीनगन को अपने पैर से बांधकर वे पैर से शत्रुओं पर मशीनगन तब तक चलाते रहे, जब तक कि उनके प्राण पखेरू नहीं उड़े। उनके इस अदम्य साहस के लिए मरणोपरांत 1963 ई. में उन्हें परमवीर चक्र से अलंकृत किया गया।
राजस्थान के महावीर चक्र विजेता प्रमुख वीर सेनानी :
महावीर चक्र परमवीर चक्र के बाद भारत का दूसरा उच्च शौर्य अलंकरण है। यह युद्ध के समय वीरता दिखलाने के लिए दिए जाने वाला पदक है। यह सम्मान मुख्यतः युद्ध की स्थिति में उच्च कोटि की शूरता, त्याग और बलिदान के लिए सैनिकों और असैनिकों को प्रदान किया जाता है। यहाँ हम राजस्थान के उन बहादुरों की शौर्य गाथा की चर्चा करेंगे, जिन्हें विभिन्न युद्धों के दौरान बहादुरी के लिए महावीर चक्र से सम्मानित किया गया है।
सूबेदार चूनाराम फागड़िया :
राजस्थान का पहला महावीर चक्र सूबेदार चूनाराम फागड़िया को 1948 ई. के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अदम्य वीरता का परिचय देने के लिए मिला। सूबेदार चूनाराम फागड़िया का जन्म 1923 ई. में सीकर जिले की लक्ष्मणगढ तहसील के गांव डलमास की ढाणी में हुआ। जून 1948 में कश्मीर के पुंछ राजौरी सेक्टर में एक पहाड़ी पर डटे दुश्मनों को हटाने की जिम्मेदारी राजपूताना रायफल्स की टुकड़ी को सौंपी गई, जिसमें हवलदार चूनाराम फागड़िया नेतृत्व कर रहे थे। जब वे दुश्मन के नजदीक पहुंचे, तो उन पर ग्रेनेड फेंका गया, किन्तु चूनाराम उससे भयभीत नहीं हुए और उन्होंने दो दुश्मनों को मार गिराया, जबकि तीन को घायल कर दिया। उनके इस अदम्य साहस के लिए भारत सरकार ने उन्हें महावीर चक्र प्रदान किया।
शहीद सैनिक ढोकलसिंह :
भारत-पाकिस्तान की इस लडाई में जोधपुर जिले के सेखला जुनावास गांव में जन्मे बहादुर सैनिक ढोकलसिंह को भी महावीर चक्र से नवाजा गया। उनका जन्म 1 दिसम्बर 1923 को हुआ। 21 वर्ष की आयु में 1944 में वे भारत की सेना की 6 राजपूताना राइफल्स में सम्मिलित हुए। अप्रैल 1948 में ढोकलसिंह की सैन्य टुकड़ी कश्मीर के उरी क्षेत्र में तैनात थी। 29 अप्रैल को ढोकलसिंह की सैन्य टुकड़ी को "उरी का मोर्चा" कहलाने वाली नवाला पिकेट को दुश्मनों के कब्जे से छुड़ाने का आदेश मिला। 20 घंटे तक चले संघर्ष में दुश्मनों द्वारा बरसाई गई गोलियों और लगाई गई आग की परवाह किए बिना ढोकलसिंह आगे बढ़ते रहे और ग्रेनेड से घायल होने के उपरांत भी उन्होने पांच दुश्मनों को मार गिराया। इस हमले वे शहीद हो गए। उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र दिया गया।
ब्रिगेडियर रघुवीर सिंह राजावत :
ब्रिगेडियर रघुवीर सिंह राजावत का जन्म 02 नवम्बर 1923 को हुआ। 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध के समय रघुवीर सिंह 18 राजपूताना राइफल्स रेजीमेंट में तैनात थे और उनकी सैन्य टुकड़ी को पंजाब के खेमकरण और आसाल उत्तर क्षेत्र की कमान संभालनी थी। उनकी टुकड़ी पर 9 नवम्बर 1965 को पाकिस्तान के सैनिकों ने अर्द्धरात्रि में टैंकरों से हमला कर दिया। ब्रिगेडियर रघुवीर सिंह के नेतृत्व में भारतीय सेना की इस टुकड़ी ने 22 पैटन टैंक को नष्ट कर दिया और दुश्मनों को भागने पर मजबूर कर दिया। उनके इस साहस के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. सर्वेपल्ली राधाकृष्णन ने उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया।
कर्नल उदय सिंह भाटी :
राजस्थान के एक और वीर सपूत को 26 जनवरी 1972 को महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। यह वीर सपूत हैं- कर्नल उदय सिंह भाटी, जो जोधपुर क्षेत्र के शेरगढ से संबंध रखते हैं। 1971 के दिसम्बर माह में उनकी तैनाती कारगिल सेक्टर में थी, जब पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया। उनके नेतृत्व में लद्दाख स्काउट की तीन टुकड़ियों को चालुंका से तारटोक तक का क्षेत्र कब्जे में करने का काम सौंपा गया। सभी तरफ से कटा हुआ 18000 फीट की ऊँचाई पर शून्य डिग्री तापमान वाला यह ऐसा क्षेत्र था, जिस पर चलना दुर्गम था। कर्नल उदय सिंह के कुशल नेतृत्व के कारण संचार से कटे उस दुर्गम क्षेत्र में उनके दल ने दुश्मनों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। अपनी सूझबूझ से उन्होंने अपने साथियों का हौंसला बनाए रखा और दस दिन तक चले इस ऑपरेशन में दुश्मन सेना को बड़ा नुकसान पहुँचाया। उनके इस साहसिक योगदान के लिए उन्हें महावीर चक्र दिया गया।
ले. कर्नल हणूत सिंह :
ले. कर्नल हणूत सिंह का जन्म 6 जुलाई 1933 को जसोल, बाडमेर में हुआ। 1971 की भारत-पाकिस्तान लड़ाई के समय ले. कर्नल हणूत सिंह पूना हॉर्स कमांड में थे। 16 दिसम्बर 1971 को हणूत सिंह शक्करगढ सेक्टर में तैनात थे। उनकी टुकड़ी को बसंतर नदी पर दुश्मनों से लोहा लेने भेजा गया।
दुश्मनों ने जमीन के भीतर विस्फोटक बिछा रखे थे किन्तु अपनी जान की परवाह किए बिना हणूत सिंह ने लगातार दो दिनों तक अपने साथियों के साथ दुश्मनों का सामना किया और 700 मीटर अंदर तक जाकर दुश्मनों के करीब 50 टैंक नष्ट कर दिए। उनके इस साहसिक नेतृत्व के लिए उन्हें महावीर चक दिया गया। 1971 के युद्ध के बाद पाकिस्तान ने भी उन्हें "फक्र-ए-हिन्द" से नवाजा। अप्रैल 2015 को उनका निधन हो गया।
ले. कर्नल सवाई भवानी सिंह :
राजस्थान के एक और वीर सपूत जयपुर के ले. कर्नल सवाई भवानी सिंह 5 और 6 दिसम्बर 1971 को अपनी पैराशूट रेजीमेंट के साथ चचरो और वीरवाह पोस्ट पर तैनात थे। उन्होंने लगातार चार दिन और रात दुश्मनों के क्षेत्र पर आक्रमण किया और बिना अपनी जान की परवाह किए साथियों का हौंसला बढाया तथा दुश्मनों के एक बड़े क्षेत्र पर अधिकार करने में कामयाबी हासिल की। इस उपलब्धि के लिए भारत सरकार ने उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया।
ग्रुप कैप्टन चंदन सिंह :
ग्रुप कैप्टन चंदन सिंह भारतीय वायु सेना के अधिकारी थे और 1971 की लड़ाई के समय वे असम में तैनात थे। उन्होंने करीब 3000 सैनिकों और 40 टन युद्ध सामग्री को अत्यंत सीमित क्षमता वाले हेलीकॉप्टर से हवाई मार्ग द्वारा ढाका की ओर पहुँचाने के लिए अपने साथियों के साथ उड़ान भरी। उन्हें रात में अत्यंत असुरक्षित क्षेत्रों में यह लैंडिंग करानी थी। 7 और 8 दिसम्बर को उन्होंने स्वयं 8 बार उड़ान भरी और शत्रुओं की सीमा के भीतर जाकर इस ऑपरेशन को सफलतापूर्वक अंजाम दिया। जमीन से उनके हैलीकॉप्टर को निशाना बनाया जा रहा था, किन्तु अपनी जान की परवाह किए बिना उन्होंने 18 बार इस मिशन को पूरा किया। उनकी इस साहसिक सफलता के लिए 1972 में उन्हें महावीर चक्र दिया गया।
नायक सुगन सिंह :
नागौर जिले के निवासी नायक सुगन सिंह 1971 की भारत-पाकिस्तान लड़ाई के समय 7 राजपूताना राईफल्स में त्रिपुरा में नियुक्त थे। 9 दिसम्बर 1971 को उन्हें उनके दल के साथ मायनामाटी नामक स्थान पर शत्रुओं पर आक्रमण का आदेश मिला, जहां वे पक्के बंकर में मशीनगनों के साथ थे। नायक सुगन सिंह को एक सेक्शन नष्ट करने का आदेश मिला। नायक सुगन सिंह ने एक मीडियम मशीनगन पोस्ट को निशाना बनाया और उसे नष्ट कर दिया। इस प्रक्रिया में उनके कंधे पर गोली लगी फिर भी बहादुरी दिखलाते हुए उन्होंने शत्रुओं के बंकर पर हथगोला फेंका और दो दुश्मनों को मार गिराया। तदुपरांत उन्होने दूसरी मीडियम मशीनगन पोस्ट को निशाना बनाया। हालांकि वे घायल अवस्था में गिर गए, फिर भी ग्रेनेड से दूसरे बंकर को नष्ट कर तीन शत्रु सैनिकों को मार गिराया। इस हमले में वे स्वयं भी शहीद हो गए। उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।
नायक दिगेन्द्र कुमार परस्वाल :
नायक दिगेन्द्र कुमार परस्वाल का जन्म 3 जुलाई 1969 को सीकर जिले के झालरा गांव में हुआ था। उनके पिता शिवदान जी स्वतंत्रता सेनानी थे और बाद में वे सेना में भर्ती हो गए। 1948 की लड़ाई में शिवदान जी की सांस की नली में गोलियां लगीं। पिता की प्रेरणा से दिगेन्द्र भी सेना में भर्ती हो गए। वे 2 राजपूताना राईफल्स में थे। कारगिल युद्ध के समय उनकी टुकड़ी को तोलोलिंग की चोटी पर कब्जा करने का लक्ष्य दिया गया, जो सबसे मुश्किल कार्य था। दिगेन्द्र इसके लिए 6 किलो वजनी रूसी रस्सा और ऐसी कीलें जो चट्टानों में घुस सकती थीं, साथ लीं और अपने साथियों और सैन्य सामग्री के साथ 10 जून 1999 की शाम तोलोलिंग की चोटी की ओर आगे बढ़े। कीलें चट्टानों में ठोकते गए और उन पर रस्सा बांध आगे बढते गए। 14 घंटे के श्रमसाध्य सफर के बाद वे लक्ष्य पर 12 जून 1999 की दोपहर पहुंचे। पाकिस्तानी सेना ने 11 बंकर वहां बना रखे थे। रात के अंधेरे में वे चोटी की ओर बढ़े किन्तु चोटी पर दुश्मन मशीनगन के साथ घात लगाए बैठा था। दिगेन्द्र का हाथ अचानक मशीनगन की बैरल को छू गया जो बम बरसाने के कारण गरम हो रहा था। दिगेन्द ने उसका मुंह बंकर की ओर कर दिया, इससे एक बंकर नष्ट हो गया।
दुश्मन के करीब 250 कमांडो और आर्टिलरी लगातार गोले बरसा रहे थे। इधर से दिगेन्द्र और उनके साथी भी फायरिंग कर रहे थे किन्तु गोले के हमले से दिगेन्द्र के हाथ से मशीनगन छूट गई। उनके साथी एक-एक कर मारे गए। किन्तु दिगेन्द्र ने हिम्मत नहीं हारी और 11 बंकरों पर 19 हथगोले फेंके। दुश्मन के मेजर अनवर को मार गिराया और 13 जून 1999 को तोलोलिंग की चोटी पर सुबह 4 बजे तिरंगा लहरा दिया। उनकी इस बहादुरी पर भारत सरकार ने उन्हें 15 अगस्त 1999 को महावीर चक्र से अलंकृत किया।
राजस्थान के अशोक चक्र विजेता प्रमुख वीर सेनानी :
परमवीर चक्र और महावीर चक्र के बाद भारत का अन्य उच्च शौर्य अलंकरण अशोक चक्र है। यह शांति के समय वीरता दिखलाने के लिए दिए जाने वाला सबसे ऊंचा पदक है। यह सम्मान मुख्यतः शांति की स्थिति में उच्च कोटि की शूरता, त्याग और बलिदान के लिए सैनिकों और असैनिकों को प्रदान किया जाता है। अब तक भारत में 83 लोगों को यह सम्मान प्राप्त हुआ है। इनमें राजस्थान के बहादुर सैनिक हवलदार शम्भूपाल सिंह को 1961 में, सूबेदार लालसिंह और सूबेदार मानसिंह को 1962 में, सीकर के कैप्टन महेन्द्र सिंह तँवर को मरणोपरांत 1965 में, जयपुर के सैकिण्ड ले. पी. एन. दत्त को 1998 में, ममडोला, डीडवाना के डिफेन्डर सुलतान सिंह राठौड़ को और सूबेदार सुरेश चन्द्र यादव को 2003 में अपनी बहादुरी के लिए अशोक चक से सम्मानित किया गया है। पंजाब में वीरतापूर्ण बलिदान के लिए झालावाड़ क्षेत्र के निर्भय सिंह को 1985 में भारत सरकार ने अशोक चक्र से अलंकृत किया।
राजस्थान के कीर्ति चक्र, शौर्य चक्र, वीर चक्र, सेना मेडल और विशिष्ट सेवा मेडल विजेता प्रमुख वीर सेनानी :
कीर्ति चक्र भी शांति के समय वीरता दिखलाने के लिए दिए जाने वाला एक महत्वपूर्ण अलंकरण है। यह सम्मान मुख्यतः शांति की स्थिति में उच्च कोटि की शूरता, त्याग और बलिदान के लिए सैनिकों और असैनिकों को प्रदान किया जाता है। अब तक भारत में 458 लोगों को यह सम्मान प्राप्त हुआ है। इनमें राजस्थान के चूरू जिले के लखउ के बहादुर सैनिक कैप्टन करणी सिंह राठौड़, मेजर सुखसिंह शेखावत, रामदास, जोधपुर के हवलदार अमर सिंह राठौड़, राणेराव, जोधपुर के सूबेदार लालसिंह राठौड़, 1972 में कांकडवा, मेवाड़ के रणशेर सिंह राणावत, 1995 में चित्तौड़ जिले के बिग्रेडियर महावीर सिंह, गांव धानी दौलतसिंह, अलवर के कर्नल सौरभ सिंह शेखावत प्रमुख हैं। कर्नल सौरभसिंह शेखावत को उनके असाधारण साहस और वीरता के लिए कीर्ति चक्र के अतिरिक्त शौर्य चक्र, सेना मेडल, विशिष्ट सेवा मेडल, सामान्य सेवा मेडल भी प्राप्त हुआ है। 27 जनवरी 2006 को जम्मू काश्मीर के पुंछ क्षेत्र में दो आतंकवादियों से लोहा लेते हुए वीरता का परिचय देते हुए बलिदान होने वाले बीकानेर के मेजर जेम्स थॉमस को भी 2006 में कीर्ति चक्र से अलंकृत किया गया।
शौर्य चक्र भी शांति के समय वीरता दिखलाने के लिए दिए जाने वाला एक महत्वपूर्ण सम्मान है। शौर्य चक्र से अलंकृत होने वाले राजस्थान के वीर जांबाज अग्रांकित हैं-बिग्रेडियर बाघसिंह राठौड़ (बीकानेर, 1964), कैप्टन नरपत सिंह राठौड़ (जोधपुर, 1970), सार्जेन्ट जगमाल सिंह (बाड़मेर, 1974), मेजर रणवीर सिंह शेखावत (झुंझनू, 1983), जमादार छोटूसिंह (1983), कैप्टन हरेन्द्र सिंह (अजमेर, 1992), मेजर रणवीर सिंह (झुंझनू, 1995), मेजर जितेन्द्र सिंह शेखावत, (जयपुर, 1998), भूपेन्द्र सिंह राठौड़ (हनुमानगढ, 2000), लेफ्टिनेन्ट अरविन्द कुमार बुरडक (पल्थाना, सीकर, 2002), नायक गोकुल सिंह (2002) लेफ्टिनेन्ट कृष्ण दयाल सिंह राठौड़ (भीलवाडा, 2007), लेफ्टिनेन्ट कर्नल सुमेर सिंह (नागौर, 2012)।
वीर चक्र युद्ध के समय दिए जाने वाला महत्त्वपूर्ण वीरता पदक है। यह सम्मान युद्ध में असाधारण वीरता, साहस, त्याग और बलिदान दिखलाने वाले बहादुर सैनिकों को दिया जाता है। वीर चक्र से अलंकृत होने वाले राजस्थान के वीर जाबांज अग्रांकित हैं- मेजर पूरन सिंह (बीकानेर, 1966), मोहम्मद अयुब खां अमीरखानी (झुंझुनूं, 1966), कर्नल मेघसिंह राठौड़ (जोधपुर, 1966), लांस नायक भंवर सिंह राठौड़ (बीकानेर, 1966), रफीक खान (बीकानेर, 1972), कर्नल गोविन्द सिंह शेखावत (सीकर, 1972), बिग्रेडियर जगमाल सिंह (बीकानेर, 1972), ग्रेनेडियर मुराद खां (नागौर, 1972), नायक हवलदार सरदार खान गौराण (नागौर, 1972), मेजर महमूद हसन खां (झुंझुनूं, 1972), मेजर राजेन्द्र सिंह राजावत (1972), कर्नल श्यामवीर सिंह राठौड़ (कोटा, 1972), नायब रिसालदार नूर मोहम्मद खां अलफखानी (नागौर, 1972), बी.एस.एफ. के डिप्टी कमांडेंट चंदन सिंह चंदेल (1972), कैप्टन नवल सिंह राजावत (जयपुर, 1972), बिग्रडियर हमीर सिंह (नागौर, 1973), 8वीं जाट रेजिमेंट के शीशराम गिल (कारगिल युद्ध), स्क्वाड्रन लीडर अजय आहूजा (कोटा, कारगिल युद्ध), नायब सूबेदार रामपाल सिंह (कोटपुतली, कारगिल युद्ध) आदि। इनके अतिरिक्त मेजर भानुप्रताप सिंह को सेना मेडल और राजपुरा, सीकर के मेजर सुरेन्द्र पूनिया को विशिष्ट सेवा पदक मिल चुका है।
देश की सीमा की सुरक्षा करते हुए बेमिसाल कुर्बानियां देने वाले इन योद्धाओं के देशानुराग और साहस को हमें हर पल अपनी स्मृति में रखना चाहिए। कवि प्रदीप ने अपने प्रसिद्ध गीत 'ऐ मेरे वतन के लोगों !' में इसी भाव को इन शब्दों में व्यक्त किया है:
"थी खून से लथ-पथ काया
फिर भी बन्दूक उठाके
दस-दस को एक ने मारा
फिर गिर गये होश गँवा के
जब अन्त समय आया
तो कह गए के अब मरते हैं
खुश रहना देश के प्यारों ....
खुश रहना देश के प्यारों
अब हम तो सफर करते हैं
अब हम तो सफर करते हैं
क्या लोग थे वो दीवाने
क्या लोग थे वो अभिमानी
जो शहीद हुए हैं उनकी
जरा याद करो कुर्बानी
तुम भूल न जाओ उनको
इसलिये कही ये कहानी
जो शहीद हुए हैं उनकी
जरा याद करो कुर्बानी
जय हिन्द जय हिन्द जय हिन्द की सेना जय हिन्द की सेना
जय हिन्द जय हिन्द जय हिन्द ..."
कवि प्रदीप का मूल नाम रामचन्द्र नारायण द्विवेदी था। इनका जन्म 6 फरवरी 1915 को मध्यप्रदेश के उज्जैन के बड़नगर नामक स्थान पर हुआ था। कवि प्रदीप ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व और पश्चात् अपनी कविताओं और गीतों से जनमानस को राष्ट्रीय भावना से ओत प्रोत किया।
पुलवामा हमला और राजस्थान के वीर योद्धा
पुलवामा जिला जम्मू-कश्मीर में स्थित है। यह जम्मू-कश्मीर राष्ट्रीय राजमार्ग पर आता है। 14 फरवरी, 2019 को केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) के करीब 2,500 भारतीय सुरक्षाकर्मी इस राजमार्ग से अपने 78 वाहनों द्वारा गुजर रहे थे। ये सभी छुट्टियां बिताकर ड्यूटी पर लौट रहे थे। यकायक पुलवामा जिले के निकट लेथपोरा इलाके में एक आत्मघाती हमलावर 350 किलोग्राम से अधिक विस्फोटक सामग्री के साथ, भरी गाड़ी को लेकर सुरक्षाकर्मियों के काफिले में घुस गया और विस्फोट कर दिया।
इस हमले में 40 से अधिक जवान शहीद हुए और करीब 35 घायल हुए। इस हमले की जिम्मेदारी पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन जैश-ए-मौहम्मद ने ली और हमलावर का नाम काकापोरा निवासी आदिल अहमद डार उर्फ वकास बतलाया गया, जो इस हमले में मारा गया। इस हमले में राजस्थान के हेमराज मीणा (कोटा), रोहिताश लांबा (जयपुर), जीतराम (भरतपुर), नारायणलाल गुर्जर (राजसंमद) और भागीरथ (धौलपुर) भी शहीद हो गए।
इस हमले के 13 दिन बाद 26 फरवरी, 2019 को भारत की वायुसेना ने पाकिस्तान के बालाकोट इलाके पर हवाई हमला किया, जिसमें 300 से अधिक आतंकियों के मारे जाने का दावा किया गया। इसके बचाव में पाकिस्तान ने भी एफ-16 विमानों से भारत पर हमला किया, जिसका प्रत्युत्तर देते हुए भारत की वायुसेना के मिग-21 विमानों ने आसमान में ही एफ-16 विमानों को चकनाचूर कर दिया। किन्तु इस संघर्ष के दौरान भारत की वायुसेना के विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान पाकिस्तानी सीमा में चले गए। इससे पूर्व अभिनंदन ने 27 फरवरी 2019 को पाकिस्तान के एफ-16 विमानों का पीछा करते हुए एक विमान मार गिराया। बाद में उनका विमान एक मिसाईल का निशाना बन गया, जिसके नष्ट होने से पहले ही वे कूद गए, किन्तु पाकिस्तान की अधिकृत कश्मीर की सीमा में फँस गए। पाकिस्तान के सुरक्षा बलों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, किन्तु भारत के दवाब के आगे झुकते हुए पाकिस्तान ने लगभग 60 घंटों बाद उन्हें 1 मार्च 2019 को भारत को सौंप दिया। इस अदम्य साहस के लिए अभिनंदन को 15 अगस्त 2019 को, युद्ध के समय दिया जाने वाला तीसरा सर्वोच्च सम्मान वीर-चक्र प्रदान किया गया। अभिनंदन को पाकिस्तान से लौटने के बाद पहली पोस्टिंग राजस्थान के सूरतगढ़ स्थित एयरबेस पर दी गई।
राजस्थान के शहीद-
(1) रोहिताश लाम्बा
पुलवामा आतंकी हमले में राजस्थान के जवान रोहिताश लाम्बा भी शहीद हो गए। केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के जवान रोहिताश लाम्बा जयपुर जिले के अमरसर थाना इलाके के गाँव गोविन्दपुरा बासड़ी के रहने वाले थे। उनकी मृत्यु से एक वर्ष पूर्व शादी और दो माह पूर्व संतान हुई थी। नवागंतुक संतान को देखकर वे छुट्टियों से सेवाकार्य पर लौटे थे कि यह हमला हो गया और वे शहीद हो गए।
(2) भागीरथ -
पुलवामा हमले में शहीद भागीरथ धौलपुर जिले के दिहौली थाना इलाके के गाँव जैतपुर के रहने वाले थे। वे छः वर्षों से केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल की 45 वीं बटालियन में कार्यरत थे। चार वर्ष पूर्व विवाहित भागीरथ के तीन साल का बेटा और डेढ़ साल की बेटी हैं। वे भी छुट्टियां बिताकर लौट रहे थे, तब यह हमला हुआ, जिसमें वे शहीद हो गए।
(3) नारायणलाल गुर्जर
पुलवामा आतंकी हमले में शहीद नारायणलाल गुर्जर राजसमंद जिले के बिनौल गाँव के निवासी थे। अपनी मृत्यु से कुछ समय पूर्व नारायणलाल ने सोशल मीछिया पर अपना एक विडियो पोस्ट कर कश्मीर के विपरीत हालातों में चुनौतीपूर्ण कार्यों को अंजाम देने के साहस को रेखांकित किया था।
(4) जीतराम गुर्जर -
पुलवामा आतंकी हमले में राजस्थान के भरतपुर जिले के नगर तहसील अन्तर्गत गाँव सुंदखाली के जवान जीतराम गुर्जर भी शहीद हो गए। जीतराम गुर्जर केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल की 92 वीं बटालियन में कार्यरत थे। 28 वर्षीय जीतराम गुर्जर के डेढ़ साल और चार माह की बेटी थी। पूरे इलाके में उनकी देशभक्ति के चर्चे होते थे।
(5) हेमराज मीणा
पुलवामा आतंकी हमले में शहीद हेमराज मीणा, कोटा जिले की सांगोद जहसील के गाँव विनोद खुर्द के रहने वाले थे। हेमराज दो बेटों और दो बेटियों के पिता थे और केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल में तैनात थे।
राजस्थान सरकार ने एक ओर जहाँ पुलवामा में हुए आतंकी हमले की घोर निंदा की, वहीं दूसरी ओर शहीदों को श्रृद्धांजलि देते हुए उनके परिवारों के प्रति संवेदना व्यक्त की। राजस्थान सरकार ने पुलवामा हमले में शहीद होने वाले राजस्थान के पाँचों जवानों के परिवारों को 25 लाख रूपए अथवा एक लाख रूपए के साथ 25 बीघा जमीन अथवा एक लाख रूपए के साथ एम.आई.जी. फ्लैट दिये जाने की घोषणा की है।
इस प्रकार राजस्थान में शौर्य और वीरता की एक लम्बी परम्परा रही है। देश की रक्षा के लिए अपने प्राण उत्सर्ग करने के अतिरिक्त राजस्थान के लोगों ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया और अपने अधिकारों के लिए भी वीरतापूर्ण संघर्ष किया है। अमृता देवी बिश्नोई का पर्यावरण रक्षा के लिए बलिदान, अरुणा रॉय के नेतृत्व में सूचना के अधिकार के लिए संघर्ष, विभिन्न जन आंदोलन इसके नागरिकों के शौर्य का बखान करते हैं, जो किसी भी कीमत पर अपने सम्मान की रक्षा करने हेतु प्रतिबद्ध रहे हैं।