राजस्थानी भाषा और बोलियां
राजस्थानी भाषा से तात्पर्य है राजस्थान के लोगों की मातृभाषा। राजस्थानी भाषा के इतिहास पर दृष्टि डालने से पता चलता है कि वि.सं. 835 (913 ई) में उद्योतन सूरी द्वारा लिखित कुवलयमाला में वर्णित 18 देशी भाषाओं में 'मरुभाषा' को भी सम्मिलित किया गया था जो पश्चिमी राजस्थान की भाषा थी। राजस्थान की भाषा के लिए 'राजस्थानी' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने 1912 ई. में लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया में किया जो इस प्रदेश में प्रचलित विभिन्न भाषाओं का सामूहिक नाम था। राजस्थान प्रदेश की भाषा के लिए यही नाम अब प्रचलित हो चुका है। मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढूंढ़ाडी, मेवाती, हाड़ौती आदि सब इसकी विभिन्न बोलियां अथवा उप-भाषायें हैं।
राजस्थानी भाषा की उत्पत्ति एवं विकास
राजस्थानी भाषा पर 10वीं सदी तक पश्चिमी भारत के क्षेत्रों में बोली जाने वाली अपभ्रंश का अत्यधिक प्रभाव रहा। हालांकि राजस्थानी का उद्भव लगभग ईसा की 11-12वीं शताब्दी से हुआ माना जाता है, परन्तु 16वीं सदी के बाद राजस्थानी भाषा का विकास एक स्वतंत्र भाषा के रूप में होने लगा। राजस्थानी भाषा के विकास क्रम में यह कहा जा सकता है कि समस्त भारतीय भाषाओं की जननी 'वैदिक संस्कृत' रही है, जो अपनी भाषायी जटिलता के फलस्वरूप 'लौकिक संस्कृत' में परिवर्तित हुई। लौकिक संस्कृत में जब दुरूहता आने लगी तो उसका स्थान 'पालि' भाषा ने लिया और 'पालि' भी जब लोक से अलग होने लगी तो उसका स्थान 'प्राकृत' ने ले लिया। जैसाकि माना जाता है भाषा कठिनता से सरलता की ओर अग्रसर होती है, प्राकृत भी जब कठिन लगने लगी तो अपभ्रंश भाषाओं का विकास हुआ, जो विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न रूपों में सामने आने लगीं। राजस्थानी भाषा का विकास भी इन्हीं अपभ्रंश भाषाओं से हुआ। राजस्थानी भाषा के विकास के संबंध में तीन अपभ्रंश भाषाओं का उल्लेख किया जाता है तथा प्रत्येक विद्वान अपने मतानुसार अपभ्रंश का उल्लेख करता है जिसमें 'शौरसेनी अपभ्रंश', 'नागर अपभ्रंश' तथा 'मरूगुर्जरी अपभ्रंश' का उल्लेख किया जाता है। इन सबमें से 'मरूगुर्जरी अपभ्रंश' का मत अधिक उचित लगता है क्योंकि 'मरूगुर्जरी अपभ्रंश' से ही मरूभाषा (राजस्थानी) तथा गुर्जरी से गुजराती भाषा का विकास हुआ। यह विभाजन भौगोलिक दृष्टि से भी समीचीन प्रतीत होता है। भाषा की व्याकरणिक विशेषताओं को देखें तो यह ज्ञात होता है कि राजस्थानी और गुजराती में अनेक समानताएं हैं।
क्षेत्रीय बोलियां
डॉ. ग्रियर्सन ने राजस्थानी बोलियों को पांच मुख्य वर्गों में बांटा है। किंतु मुख्य रूप से राजस्थानी की बोलियों को दो भागों में बांटा जा सकता है
- पश्चिमी राजस्थानी मारवाड़ी, मेवाड़ी, बागड़ी, शेखावाटी
- पूर्वी राजस्थानी : ढूंढाड़ी, हाड़ौती, मेवाती, अहीरवाटी (राठी)
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| राजस्थानी भाषा और साहित्य |
राजस्थानी की प्रमुख बोलियां
मारवाड़ी
राजस्थान के इतिहास और भौगोलिक क्षेत्र में मारवाड़ का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। मारवाड़ राज्य का भौगोलिक क्षेत्र बहुत विस्तृत रहा और इस क्षेत्र की बोली को 'मारवाड़ी' का नाम दिया गया। यही कारण है कि राजस्थानी बोलियों में मारवाड़ी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं और साहित्य सृजन भी अपेक्षाकृत अधिक हुआ है। यही कारण है कि इसे कहीं-कहीं राजस्थानी का पर्याय भी माना जाता रहा। प्राचीन मारवाड़ राज्य राजस्थान की पश्चिमी सीमा से जुड़ा रहा है इसलिए मारवाड़ी को पश्चिमी राजस्थान से जोड़ा गया।
आज इस बोली के क्षेत्र में जोधपुर, बीकानेर, नागौर, बाड़मेर, जैसलमेर, पाली तथा शेखावाटी का कुछ क्षेत्र इससे संबद्ध रहा है। थळी और गोड़वाड़ी बोलियां इसकी उपबोलियां हैं।
मेवाड़ी
राजस्थान के मेवाड़ राज्य का क्षेत्र मेवाड़ी का क्षेत्र रहा है। साहित्य परंपरा की दृष्टि से देखें तो मारवाड़ी के पश्चात् मेवाड़ क्षेत्र में साहित्य लेखन हुआ है।
आधुनिक राजस्थान में उदयपुर, चित्तौड़गढ़, राजसंमद तथा भीलवाड़ा का क्षेत्र मेवाड़ी बोली का क्षेत्र कहा जा सकता है। मेवाड़ के पर्वतीय क्षेत्रों में बोली जाने वाली मेवाड़ी को 'पर्वती मेवाड़ी' तथा मैदानों में बोली जाने वाली मेवाड़ी को 'मैदानी मेवाड़ी' कहा जाता है।
ढूंढाड़ी
राजस्थान के प्राचीन ढूंढाड़ प्रदेश जिसका संबंध आमेर राज्य से रहा, उस क्षेत्र की बोली को ढूंढाड़ी बोली कहा गया है। इस बोली की सबसे बड़ी विशेषता 'छै' शब्द का प्रयोग है। इस शब्द का प्रयोग गुजराती के प्रभाव को इंगित करता है।
आधुनिक राजस्थान में जयपुर, दौसा, बगरू, दूदू तक का क्षेत्र ढूंढाड़ी का क्षेत्र कहा जा सकता है। तोरावाटी, राजावाटी, नागरचोल आदि इसकी उपबोलियां हैं।
हाड़ौती
हाड़ा राजपूतों के राज्य से संबंधित क्षेत्र को हाड़ौती बोली का क्षेत्र माना गया है। इस बोली में भी ढूंढाडी की तरह 'छै' शब्द का प्रयोग किया जाता हैं।
आज कोटा, बूंदी, झालावाड़, बारां का क्षेत्र हाड़ौती बोली का क्षेत्र कहा जा सकता है।
मेवाती
'मेव' जाति का आधिक्य होने से अलवर, भरतपुर के क्षेत्र को 'मेवात' क्षेत्र कहा गया है। इस क्षेत्र की बोली को 'मेवाती' कहा गया है। इसका क्षेत्र राजस्थान के आसपास हरियाणा के क्षेत्रों को भी स्पष्ट करता है। भरतपुर के आसपास के क्षेत्रों में इस बोली पर 'ब्रजभाषा' का प्रभाव भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
वागड़ी
राजस्थान के 'वागड़' क्षेत्र की बोली को वागड़ी का नाम दिया गया है। यह बोली बांसवाड़ा, डूंगरपुर तथा आसपास के पहाड़ी क्षेत्रों में बोली जाती हैं। इस बोली पर गुजराती भाषा का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
मालवी
प्राचीन मालवा प्रदेश का राजस्थान प्रदेश से बहुत गहरा संबंध रहा है इसलिए मालवा प्रदेश से जुड़े राजस्थान के क्षेत्रों पर मालवी बोली का भी बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है, जिसका अंतर करना बहुत कठिन हैं इसलिए मालवी को ही राजस्थानी की भी बोली स्वीकार किया गया है। राजस्थान के प्रतापगढ़ का क्षेत्र इस बोली का क्षेत्र है। मध्यप्रदेश का रतलाम, झाबुआ आदि का क्षेत्र इस बोली का क्षेत्र है। 'रांगड़ी' और 'नीमाड़ी' इस बोली की उपबोलियां हैं।
शेखावाटी
'राव शेखा' के नाम से प्रसिद्ध राजस्थान का क्षेत्र 'शेखावाटी' कहलाया है। इसी क्षेत्र की बोली को 'शेखावाटी' कहा गया है। आज चुरू, झुंझनूं, हनुमानगढ़, सूरतगढ़ तथा गंगानगर तक का क्षेत्र इस बोली का क्षेत्र कहा जा सकता है।
भीली और अन्य पहाड़ी बोलियाँ
राजस्थान में आदिवासी जनजातियों का बहुत बड़ा जन समूह आज भी पहाड़ी क्षेत्रों में रहता है जो कि 'कबीला संस्कृति' को लिए हुए हैं। इस प्रकार की जन जातियों में भील, मीणा, गरासिया आदि प्रमुख हैं। इनमें भीलों का क्षेत्र व्यापक है। अतः इनकी बोलियों में भीली बोली प्रमुख रही है। इनके साथ-साथ अन्य जनजातियों की बोलियों को भी पहाड़ी बोलियों के अन्तर्गत स्वीकार किया गया है लेकिन जिन-जिन क्षेत्रों में ये जातियां निवास करती है, उन क्षेत्रों की बोलियों का भी इन पर गहरा प्रभाव पड़ा है।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भाषा का निर्माण उपभाषाओं (बोलियों) द्वारा ही होता है। इस रूप में यह भी निश्चित है कि राजस्थानी बोलियों से ही राजस्थानी भाषा का विकास हुआ है।
राजस्थानी साहित्य
राजस्थानी साहित्य का इतिहास एवं परंपरा- राजस्थानी साहित्य का प्रारंभिक साहित्य हमें अभिलेखीय सामग्री के रूप में मिलता है, जिसमें शिलालेखों, अभिलेखों, सिक्कों तथा मुहरों में जो साहित्य उत्कीर्ण है उस साहित्य को अभिलेखीय साहित्य कहा जा सकता है। यद्यपि यह सामग्री अत्यल्प मात्रा में उपलब्ध होती है लेकिन जितनी भी सामग्री उपलबध होती है उसका साहित्यिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व है।
राजस्थानी साहित्य में लिखित साहित्य 'वाणीनिष्ठता' की विशेषता को लिये रहा है जिसे लोकसाहित्य कहा गया है। यह साहित्य लोक के अनुभव का अक्षय भंडार रहा, जहां विविध विधाओं में साहित्य हमें श्रवण परंपरा से प्राप्त होता रहा। राजस्थानी साहित्य की इतिहास परंपरा को हम निम्न रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं ।
| क्रम संख्या | काल-परक | प्रवृत्ति-परक | काल-क्रम |
| 1. | प्राचीन काल | वीरगाथा काल | 1050 से 1450 ई |
| 2. | पूर्व मध्य काल | भक्ति काल | 1450 से 1650 ई. |
| 3. | उत्तर मध्य काल | श्रंगार, रीति एवं नीति परक काल | 1650 से 1850 ई. |
| 4. | आधुनिक काल | विविध विषयों एवं विधाओं से युक्त | 1850 ई. से अद्यतन |
1. प्राचीन काल वीरगाथा काल (1050 से 1450 ई.)
भारतवर्ष पर निरंतर होने वाले हमले पश्चिम दिशा से हो रहे थे। इनका अत्यधिक प्रभाव राजस्थान प्रदेश पर पड़ रहा था और यहां के शासकों को संघर्ष करना पड़ रहा था। ऐसी परिस्थिति में संघर्ष की भावना को बनाए रखने के लिए तथा समाज में वीर नायकों के आदर्श को प्रस्तुत करने के लिए वीर रसात्मक काव्यों का सृजन किया गया। इस काल में वीरता प्रधान काव्यों की प्रमुखता के कारण ही इस काल को वीरगाथा काल का नाम दिया गया है। इस काल की महत्त्वपूर्ण रचना श्रीधर व्यास की 'रणमल्ल छंद' है। इस काल में जैन रचनाकारों की रचनाएं भी उल्लेखनीय रही हैं।
2. पूर्व मध्य काल भक्ति काल (1450 से 1650 ई.) राजस्थान के इतिहास में संघर्ष का लंबा
इतिहास रहा तथा इन युद्धों ने धर्म और संस्कृति को व्यापक रूप से प्रभावित किया। संघर्षों के आधार के रूप में साम्राज्य विस्तार के साथ-साथ धर्म के प्रचार-प्रसार की प्रवृत्ति भी दिखाई दी। ऐसी परिस्थितियों में संघर्ष से मुक्त होने तथा समस्त प्रकार के विभेदों को मिटाने के लिए जन-सामान्य भक्ति की ओर प्रवृत्त होने लगा तथा ऐसे समय में कई संतों और भक्तों ने जन-सामान्य को सही राह दिखाई तथा अपनी कलम से समाज में सभी प्रकार के भेदभावों को मिटाते हुए 'सद् समाज' की कल्पना को मूर्त रूप प्रदान करने का प्रयास किया। इन संतों तथा भक्तों की रचनाओं की अधिकता के कारण इस काल को भक्ति काल का नाम दिया गया।
इसी काल में विभिन्न संतों और उनके द्वारा प्रवृत्त संप्रदायों ने लोक में अपनी गहरी पैठ बनाई और लोगों ने उनके मार्ग का अनुसरण किया। ऐसे संप्रदायों में रामस्नेही, दादूपंथ, नाथपंथ, अलखिया संप्रदाय, विश्नोई संप्रदाय, जसनाथी संप्रदाय आदि प्रमुख हैं। इन संप्रदायों ने नाम-स्मरण का महत्त्व, निर्गुण उपासना पर बल, गुरु की महत्ता पर बल देते हुए, जाति व्यवस्था में भेदभाव को मिटाते हुए कहा "जात-पांत पूछै नहीं कोई हरि को भजै सो हरि का होय।"
इनके साथ सगुण भक्त कवियों ने भी अपने आराध्य देवों की वन्दना एवं महिमा गान अपनी रचनाओं के माध्यम से किया। इस प्रकार की रचनाओं में भक्त शिरोमणि मीरांबाई के पद, पृथ्वीराज राठौड़ की 'वेलि किसण रूकमणि री' माधोदास दधवाडिया की 'रामरासो' ईसरदास की 'हरिरस' और 'देवियांण' सायांजी झूला की 'नागदमण' इस क्रम की प्रमुख रचनाएं हैं।
3. उत्तर मध्य काल श्रृंगार, रीति एवं नीति परक काल (1650 से 1850 ई.) राजस्थानी साहित्य के उत्तर मध्य काल का साहित्य विविध विषयों से युक्त रहा। इस काल में राजनीतिक दृष्टि से अपेक्षाकृत शांति का काल रहा। शासकों ने अपने राज्य में कलाकारों और साहित्यकारों को संरक्षण प्रदान किया, जिन्होंने साहित्य और कला के विविध आयामों का विकास किया। इस काल में श्रृंगार, रीति (काव्य शास्त्रों) तथा नीति से संबंधित रचनाएं प्रस्तुत की गई।
लोक में प्रचलित प्रेमाख्यानों को विभिन्न ग्रंथों के रूप में प्रस्तुत किया गया। काव्य शास्त्र से संबंधित रचनाओं में कवि मंछाराम ने 'रघुनाथ रूपक' प्रस्तुत किया तथा संबोधन परक नीति कारकों में 'राजिया रा सोरठा', 'चकरिया रा सोरठा', 'भेरिया रा सोरठा', 'मोतिया रा सोरठा' आदि रचनाएं प्रमुख हैं।
4. आधुनिक काल - विविध विषयों एवं विधाओं से युक्त (1850 से अद्यतन) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले संग्राम (सन् 1857) के पश्चात् समाज में नवीन चेतना का संचार हुआ, जिसका व्यापक असर समाज के सभी वर्गों पर पड़ा और साहित्य भी इससे अछूता नहीं रहा और साहित्य में आधुनिक चेतना का संचार हुआ, जिसे साहित्य में आधुनिक काल का नाम दिया गया।
राजस्थानी साहित्य में चेतना का शंखनाद मारवाड़ के कविराजा बांकीदास और बूंदी के सूर्यमल्ल मीसण ने किया। जिनके क्रांतिकारी विचारों से समाज में चेतना जाग्रत हुई तथा इस चेतना को आगे की पीढ़ी के साहित्यकारों ने जगाए रखा, जिसका सुखद परिणाम हमारे देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के रूप में प्राप्त हुआ।
आधुनिक राजस्थानी की साहित्य की गद्य और पद्य विधाओं में प्रचुर साहित्यिक सामग्री का सृजन हो रहा है और उस साहित्यिक सामग्री के आधार पर राजस्थानी साहित्य की परंपरा अत्यंत सुदृढ़ तथा महत्त्वपूर्ण है।
राजस्थानी गद्य-पद्य की विशिष्ट शैलियां
ख्यात
देशी राज्यों के राजाओं ने अपने सम्मान, सफलताओं और विशेष कार्यों आदि के विवरण के रूप में अपना इतिहास लिखवा कर संचित किया है। यह इतिहास 'ख्यात' कहलाता है, जैसे- 'दयालदास री ख्यात' में बीकानेर के राव बीकाजी से लेकर महाराजा अनूपसिंह तक का इतिहास संचित है। मुहणोत नैणसी द्वारा रचित 'मुहणोत नैणसी री ख्यात' इस परंपरा की विशिष्ट रचना है।
वचनिका
संस्कृत के 'वचन' शब्द से बना 'वचनिका' शब्द एक काव्य विधा के रूप में साहित्य में प्रचलित हुआ। 'वचनिका' एक ऐसी तुकान्त गद्य-पद्य रचना है जिसमें अंत्यानुप्रास मिलता है, यद्यपि इसके अपवाद भी मिलते हैं। राजस्थानी भाषा की दो अत्यंत प्रसिद्ध वचनिकाओं में शिवदास गाडण कृत 'अचलदास खींची री वचनिका' तथा खिड़िया जग्गा री कही 'राठौड़ रतनसिंघ महेसदासोत री वचनिका' प्रमुख है।
दवावैत
दवावैत कलात्मक गद्य का एक अन्य रूप है, जो वचनिका काव्य रूप की तरह ही है। वचनिका राजस्थानी में लिखी होती है, किन्तु दवावैत उर्दू और फारसी के शब्दों से युक्त होती है। इनमें कथा के नायक का गुणगान, राज्य-वैभव, युद्ध, आखेट, नखशिख आदि का वर्णन तुकान्त और प्रवाहयुक्त होता है। 'अखमाल देवड़ा री दवावैत', 'महाराणा जवानसिंह री दवावैत', 'राजा जयसिंह री दवावैत' आदि प्रमुख दवावैत ग्रंथ हैं।
वात
कहानी की तरह वात कहने और सुनने की विशेष विधा है। कथा कहने वाला कहता चलता है और सुनने वाला 'हुँकारा' (बीच-बीच में हाँ जैसे शब्दों का प्रयोग, जिससे कथाकार को लगे कि श्रोता रुचि ले रहा है) देता रहता है। इन वातों में जीवन के हर पक्ष, युद्ध, धर्म, दर्शन, मनोरंजन पर प्रकाश डाला गया हैं। गद्यमय, पद्यमय तथा गद्य-पद्यमय तीनों रूपों में वातें मिलती हैं। 'राव अमरसिंहजी री वात', 'खींचियां री वात', 'पाबूजी री वात', 'कान्हड़दे री वात', 'अचलदास खींची री वात' आदि प्रमुख वातें हैं।
झमाल
झमाल राजस्थानी काव्य का मात्रिक छन्द है। इसमें पहले पूरा दोहा, फिर पांचवें चरण में दोहे के अंतिम चरण को दोहराया जाता है। 'राव इन्द्रसिंह री झमाल' प्रसिद्ध है।
झूलणा
झूलणा राजस्थानी काव्य का मात्रिक छन्द है। इसमें चौबीस अक्षर के वर्णिक छन्द के अंत में यगण होता है। 'अमरसिंह राठौड़ रा झूलणा', 'राजा गजसिंह-रा-झूलणा', 'राव सुरतांण-देवड़े-रा-झूलणा' आदि प्रमुख झूलणा रचनाएं हैं।
परची
संत-महात्माओं का जीवन परिचय राजस्थानी भाषा में जिस पद्यबद्ध रचना में मिलता है उसे परची कहा गया है। 'संत नामदेव री परची', 'कबीर री परची', 'संत रैदास री परची', 'संत पीपा री परची', 'संत दादू री परची', 'मीराबाई री परची' आदि प्रमुख परची रचनायें हैं।
प्रकास
किसी वंश अथवा व्यक्ति विशेष की उपलब्धियों या घटना विशेष पर प्रकाश डालने वाली कृतियों को प्रकास कहा गया है। किशोरदास का 'राजप्रकास', आशिया मानसिंह का 'महायश प्रकास', कविया करणीदान का 'सूरज प्रकास' आदि प्रमुख प्रकास ग्रंथ हैं।
मरस्या
राजा या किसी व्यक्ति विशेष की मृत्यु के बाद शोक व्यक्त करने के लिए 'मरस्या' काव्यों की रचना की गई। इसमें उस व्यक्ति के चारित्रिक गुणों के अतिरिक्त अन्य महान कार्यों का वर्णन भी किया जाता था। 'राणे जगपत रा मरस्या' मेवाड़ महाराणा जगतसिंह की मृत्यु पर शोक प्रकट करने के लिए लिखा गया था।
रासो
मोतीलाल मेनारिया के अनुसार, "जिस काव्य ग्रंथ में किसी राजा की कीर्ति, विजय, युद्ध, वीरता आदि का विस्तृत वर्णन हो, उसे रासो कहते हैं।" रासो ग्रंथों में चन्द्रबरदाई का 'पृथ्वीराज रासो', नरपति नाल्ह का 'बीसलदेव रासो', गिरधर आसिया का 'सगत रासो', दलपत विजय का 'खुमाण रासो', कुम्भकर्ण का 'रतन रासो', जोधराज का 'हम्मीर रासो' प्रमुख है।
रूपक
किसी वंश अथवा व्यक्ति विशेष की उपलब्धियों के स्वरूप को दर्शाने वाली काव्य कृति रूपक कहलाती है। 'गजगुणरूपक', 'रूपक गोगादेजी रो', 'राजरूपक' आदि प्रमुख रूपक काव्य हैं।
विगत
विगत से किसी विषय का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। इसमें इतिहास की दृष्टि से शासक, उसके परिवार, राज्य के क्षेत्र प्रमुख व्यक्ति अथवा उनके राजनीतिक, सामाजिक व्यक्तित्व का वर्णन मिलता है। विगत में उपलब्ध आंकड़े आर्थिक दृष्टि से भी उपयोगी रहे हैं। मुहणोत नैणसी की 'मारवाड़ रा परगनां री विगत' में प्रत्येक परगने की आबादी, रेख, भूमि किस्म, फसलों का हाल, सिंचाई के साधन आदि की जानकारियां प्राप्त होती हैं।
वेलि
वेलि ग्रंथ 'वेलियो' छन्द में लिखे हुए हैं। इनके विविध विषय रहे है, जो धार्मिक, ऐतिहासिक रहे हैं। 'दईदास जैतावत री वेलि', 'रतनसी खीवावत री वेलि' तथा 'राव रतन री वेलि' प्रमुख वेलि ग्रंथ हैं। वेलि परंपरा की प्रमुख रचना पृथ्वीराज राठौड़ की लिखी हुई 'वेलि किसण रूकमणी री' है।
साखी
साखी साक्षी शब्द से बना है। साखी परक रचनाओं में संत कवियों ने अपने द्वारा अनुभव किये गये ज्ञान का वर्णन किया है। साखियों में सोरठा छन्द का प्रयोग हुआ है। कबीर की साखियां प्रसिद्ध हैं।
सिलोका
सिलोका साधारण पढ़े-लिखे लोगों द्वारा लिखे गये हैं, इसलिए ये जनसाधारण की भावनाओं को आमजन तक पहुँचाते हैं। 'राव अमरसिंह रा सिलोका', 'अजमालजी रो सिलोको', 'राठौड़ कुसलसिंह रो सिलोको', 'भाटी केहरसिंह रो सिलोको' आदि प्रमुख सिलोके हैं।
आधुनिक राजस्थानी साहित्य
मारवाड़ के कविराजा बांकीदास तथा बूंदी के सूर्यमल्ल मीसण ने राजस्थानी जन मानस में जिस राष्ट्रीय चेतना का बीज बोया था, वही आगे चलकर आधुनिक काल के अनेक कवियों की कविताओं में प्रकट हुआ। इन्हीं के साथ हींगलाजदान कविया और शंकरदान सामोर का भी नाम लिया जाना जरूरी है। आधुनिकता का संबंध केवल काल से ही नहीं अपितु विचार से, सोच से भी होता है। जीवन को देखने-समझने की वैज्ञानिक दृष्टि और यथार्थपरक दृष्टिकोण आधुनिकता की विशेषताएं हैं। कवि ऊमरदान की कविताओं में संवत् 1956 के अकाल से दुःखी जनता का मार्मिक चित्रण किया है। साथ ही पाखण्डी साधुओं को बेनकाब किया गया है। रामनाथ कविया ने 'द्रोपदी विनय' से नारी चेतना को जागृत किया।
केसरीसिंह बारहठ, विजयसिंह पथिक, जयनारायण व्यास, हीरालाल शास्त्री, गोकुल भाई भट्ट, माणिक्यलाल वर्मा, जनकवि गणेशीलाल व्यास राजस्थान के ऐसे कवि हैं जिन्होंने आजादी की लड़ाई में भाग लेने के साथ ही इस लड़ाई के लिए अपनी कलम को भी हथियार बनाया। इनमें से गणेशीलाल व्यास ऐसे कवि हैं जिन्होंने खुद आजादी की लड़ाई में भाग लिया और आजादी के बाद के अपने मोहभंग को भी कविताओं में प्रखर रूप से प्रकट किया है। रेवतदान चारण की रचनाएं सामन्ती शोषण के प्रति आमजन को जगाने का काम करती हैं।
राजस्थानी के अनेक कवियों ने जन-जन तक अपनी बात पहुँचाने के लिए कवि सम्मेलनों को माध्यम बनाया। एक समय था जब राजस्थानी कवि मेघराज मुकुल की 'सेनाणी' कवि सम्मेलनों की सर्वाधिक लोकप्रिय कविताओं में मानी जाती थीं। सत्यप्रकाश जोशी अपने मौलिक और गैर पारंपरिक सोच के साथ अलग ही स्थान रखते हैं। 1960 ई. में प्रकाशित उनकी काव्य कृति राधा इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि जहाँ आम राजस्थानी कविता युद्ध का गौरव गान करती हैं, वहीं जोशी अपनी नायिका राधा के माध्यम से श्रीकृष्ण को यह संदेश देकर कि भयंकर युद्ध टाल दें, युद्ध के विरोध में खड़े दिखाई देते हैं। इसी प्रकार कन्हैयालाल सेठिया (जिनके गीत 'धरती धोरां री' को तो राजस्थान का आदर्श गीत भी कहा जा सकता है) की रचनाएं तो गहरी नींद में सोई हुई आत्मा को भी जगा दे, ऐसी क्षमता रखती है। 'मींझर' और 'लीलटॉस' सेठिया जी के प्रमुख काव्य संग्रह हैं।
सातवें दशक के मध्य तक राजस्थान की आधुनिक कविता का पहला दौर चला। राजस्थान में राजस्थानी भाषा में 'मरुवाणी', 'जलमभोम', 'जांणकारी', 'ओळमो', 'लाडेसर', 'हरावळ', 'राजस्थली', 'ईसरलाट', 'राजस्थानी-एक हेलो', 'दीठ', 'चामळ', 'अपरंच' जैसी अनेक साहित्यिक पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही थीं और इनके माध्यम से बहुत सारे नए कवि सामने आ रहे थे। यही वह समय है जब पारस अरोड़ा की जुड़ाव, गोरधनसिंह शेखावत की गाँव, तेजसिंह जोधा की 'कठैई कीं व्हेगौ है', मणि मधुकर की 'सोजती गेट', 'पगफेरो', हरीश भादाणी की 'बोलै सरणाटौ', 'बाथां में भूगोल', चन्द्रप्रकाश देवल की 'पागी', 'कावड', 'मारग', अर्जुनदेव चारण की 'रिन्दरोही', मालचन्द तिवाड़ी 'कीं उतर्यो है आभौं' आदि रचनाओं ने राजस्थानी साहित्य को नई ऊँचाईयां प्रदान कीं।
शिवचंद्र भरतिया को राजस्थानी का प्रथम आधुनिक गद्यकार कहा जा सकता है। रानी लक्ष्मी कुमारी चूण्डावत ने राजस्थान के अतीत को सजीव करने वाली ऐतिहासिक सांस्कृतिक गरिमापूर्ण कहानियां लिखीं- 'मांझळ रात', 'अमोलक वातां', 'मूमळ', 'गिर ऊंचा ऊंचा गढ़ां', 'कै रे चकवा बात' आदि। विजयदान देथा ने अपनी 'बातां री फुलवारी' (14) खण्ड) श्रृंखला में राजस्थान की यत्र-तत्र बिखरी लोककथाओं का कुछ ऐसा अनूठा संकलन किया कि उन्हें खूब प्रसिद्धि मिली। विजयदान देथा के कुछ प्रमुख राजस्थानी-हिन्दी कहानी संग्रह हैं- 'दुविधा', 'उलझन', 'अलेखूं हिटलर', 'सपन प्रिया', 'अंतराल' आदि। 'दुविधा' नामक विजयदान देथा की कृति पर तो 'पहेली' नामक फिल्म का निर्माण भी हो चुका है। इनकी कृति 'चौधराइन की चतुराई' को भी बेहद पसंद किया जाता है। यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र की कहानियां उनके संग्रहों 'जमारो', 'समन्द अर थार' में संग्रहित हैं और उनके कुछ उपन्यास हैं- 'हूं गोरी किण पीव री', 'जोग-संजोग', 'चान्दा सेठाणी' आदि।
इसी प्रकार नथमल जोशी के कहानी संग्रह परण्योड़ी कंवारी तथा उपन्यास 'आभै पटकी', 'धोरां रौ धोरी', 'एक बीनणी दो बीन' भी बहुत प्रसिद्ध हैं। प्रसिद्ध कहानीकारों में डॉ. नृसिंह राजपुरोहित, अन्नाराम सुदामा, रामेश्वर दयाल श्रीमाली, डॉ. मनोहर शर्मा, सांवरदईया आदि प्रमुख हैं।
साहित्यिक पत्रकारिता
राजस्थान की साहित्यिक पत्रकारिता का वैभवपूर्ण इतिहास रहा है। इन साहित्यिक, लघु व अनियतकालीन पत्रिकाओं ने राजस्थान के लेखन को ही गति प्रदान करने के साथ ही हिन्दी प्रदेशों के साहित्यकारों को भी एक मंच प्रदान किया है। बीकानेर की वातायन (हरीश भादानी), अजमेर की लहर (प्रकाश जैन), भरतपुर की ओर (विजेन्द्र), कांकरोली की सम्बोधन (कमर मेवाड़ी), अलवर की कविता (भागीरथ भार्गव), उदयपुर की बिन्दु ने अनेक लेखकों को गंभीर व स्तरीय मंच प्रदान किया। सम्प्रेषण (चन्द्रभानु भारद्वाज), मधुमाधवी (नलिनी उपाध्याय) के साथ राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका 'मधुमती' ने भी राजस्थान में साहित्यिक वातावरण बनाने में योगदान दिया। राजस्थानी भाषा की पत्रिकाओं में राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर की 'जागती जोत' के अतिरिक्त सत्यप्रकाश जोशी की 'हरावल', किशोर कल्पनाकांत की 'ओल्यूं', कवि चन्द्रसिंह द्वारा स्थापित 'मरुवाणी' प्रमुख हैं।
उपर्युक्त रचनाएं समृद्ध राजस्थानी साहित्य का संक्षिप्त परिचय भर हैं, सच्चाई यह हैं कि राजस्थानी साहित्य का भण्डार इतना विपुल है कि उसका सम्पूर्ण वर्णन करना किसी एक सीमा में सम्भव नहीं है।
