अलवर का यह किसान आंदोलन 1924 में एन. एल. टिक्को के भूमि बंदोबस्त को लागू करने के बाद शुरू हुआ यह नीमूचणा गांव तक ही सीमित नहीं था यह बहरोड़, थानागाजी के साथ लगभग पूरी रियासत में राजपूत किसानों ने आंदोलन किया था।
अलवर के उस समय के तत्कालीन महाराजा जयसिंह ने अंग्रेजों के दबाव में आकर किसानों पर दोहरा कर लगा दिया था उसके विरोध में ये आंदोलन अलवर महाराजा के खिलाफ चलाया गया किसान आंदोलन था।
प्रमुख नेता:- माधोसिंह, गोविंद सिंह, अमर सिंह और गंगा सिंह
आंदोलन में राजपूतों के अलावा अन्य जातियों के लोग भी थे लेकिन उन्होंने क्षत्रिय राजपूतों के नेतृत्व में विरोध किया था।
अलवर में राजपूत किसानों के आंदोलन करने का कारण
- अलवर रियासत में इससे पहले भी 1876 में पाउलेट द्वारा और 1900 में डायर द्वारा भूमि बंदोबस्त किया गया लेकिन यह आंदोलन नहीं हुआ।
- लेकिन 1924 के भूमि बंदोबस्त के बाद आंदोलन इसलिए शुरू हुए कि अलवर में 80% भूमि खालसा यानि राजा के पास थी शेष बची 20% भूमि सामंंतों यानि जागीरदारों के पास थी।
- जो खालसा भूमि थी इसपर इस भूमि बंदोबस्त के बाद कर 40% तक बढ़ा दिए गए।
- राजपूत और ब्राह्मण किसानों के विशेषाधिकार समाप्त कर दिए गए।
- ब्राह्मण खेती कम किया करते थे तो उन्होंने इसका इतना विरोध नहीं किया लेकिन राजपूत जो सैनिक सेवा देते थे उसके बदले में उन्हें कर में छूट थी उसको अब समाप्त कर दिया गया।
अलवर में राजपूत किसान आंदोलन की मांगे
- भू राजस्व जो बढ़ा दिया गया था उसे कम किया जाए।
- माफी जमीन यानि जो जमीन मंदिरों को दी गई थी उसको जप्त ना किया जाए।
- चराई कर बंद किया जाए यानि पशुओं को चराने पर लगने वाला कर महाराजा द्वारा ना लिया जाए।
- जंगली सूअरों को मारने की अनुमति अलवर रियासत दे या सूअरों के लिए जो आरक्षित क्षेत्र है रौंद उसमें इन्हें समिति करो।
- बेगार प्रथा बंद की जाए यानि राजा के लिए बिना तनख्वा काम ना किया जाए।
अलवर राजपूत किसान आंदोलन
इसकी शुरुआत अक्टूबर 2024 में बानसूर और थानागाजी से हुई उसके बाद किसानों ने राष्ट्रीय स्तर के संगठन अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के दिल्ली सम्मेलन जनवरी 2025 में अपनी मांगे रखी तो उन्हें अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा का समर्थन मिल गया।
किसानों ने इसी सम्मेलन में पुकार नाम का एक पर्चा बांटा जो इस समय के राजा जयसिंह के खिलाफ था।
नीमूचणा हत्याकांड की कहानी
नीमूचणा बानसूर में एक गांव पड़ता है जहां किसानी ने एकत्रित होने का फैसला किया तो अलवर रियासत द्वारा 6 मई 1925 को सभा ना करने और हथियार ना रखने का आदेश जारी कर दिया।
उसके बाद दबाव ज्यादा बढ़ा तो 7 मई 1925 को जनरल रामभद्र ओझा को किसानों से बातचीत करने के लिए भेजा लेकिन बात नहीं बनी।
सरकार ने राजपूत किसानों को राहत देने के बजाय इस आंदोलन को शक्ति से कुचलना चाहा लेकिन राजपूत अडिग थे उन्होंने नीमूचणा में एकत्रित होने का फैसला किया।
उसके बाद महाराजा ने कमांडर छाजू सिंह के नेतृत्व में अलवर रियासत की सेना भेजी जिसने नीमूचणा गांव को चारों ओर से घेर लिया और छाजू सिंह के आदेश पर 14 मई 1925 को शाम 5 बजे किसानों पर गोलियां चलाई और गांव में आग लगा दी।
इसमें 156 किसान मारे गए कहीं आंकड़ा 250 किसानों तक जाता है और 39 किसान नेताओं को गिरफ्तार किया गया 100 से अधिक लोग घायल हुए और 60 मवेशी भी आग से जल गए।
सैनिकों ने जो गांव में आग लगाई उससे गांव में बहुत हानि हुई और 150 घर जलकर राख हो गए।
गणेश शंकर विद्यार्थी पैदल चलकर नीमूचणा आए और किसानों से बातचीत की।
वीर अर्जुन अखबार के कलकत्ता संस्करण में इस हत्याकांड के बारे ने लेख छापा गया।
महात्मा गांधी जी ने इस हत्याकांड का उल्लेख करते हुए इस जलियांवाला बाग हत्याकांड से भी भयानक बताया और इसे दोहरी डायरशाही कहा।
रियायत नाम के एक लोकल अखबार ने इसे जलियांवाला बाग हत्याकांड के बराबर बताया। कानपुर के प्रताप समाचार पत्र ने भी इसे कवर किया।
एकमात्र अखबार तरुण राजस्थान ने इसका 31 मई 1925 को सचित्र वर्णन किया।
1926 में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन में महात्मा गांधी ने स्वयं अपनी कलम से नीमूचणा नरसंहार पर निंदा प्रस्ताव प्रस्तुत किया।
सरदार बल्लभ भाई पटेल ने बंबई में आयोजित मारवाड़ी सभा में इस नीमूचणा हत्याकांड की घोर आलोचना की।
हत्याकांड के बाद आंदोलन का महत्व
इसकी जांच को लेकर राजस्थान सेवा संघ ने एक समिति बनाई जिसमें कन्हैयालाल कलन्त्री, हरिभाई किंकर और लादूराम जोशी शामिल थे।
महात्मा गांधी ने मणिलाल कोठारी समिति बनाई जिसका सचिव रामनारायण चौधरी को बनाया जिन्होंने इसे पहली बार हत्याकांड कहना शुरू किया।
अलवर रियासत की तरफ से भी एक जांच आयोग बनाया गया जिसमें छाजू सिंह, रामचरण और सुल्तान सिंह शामिल थे इन्होंने अपनी रिपोर्ट सौंपी और राजा को लगा गलत हुआ है तो उन्होंने किसानों की मांगे 18 नवंबर 1925 को मान ली और पुराना भूमि बंदोबस्त लागू कर दिया।
और नीमूचणा हत्याकांड में शाहिद हुए लोगों को 128 रुपए का मुआवजा दिया गया और आंदोलन से जुड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
कहानियों के मुताबिक अंग्रेजों के दबाव में आकर महाराजा नीमूचणा किसानों से मिले और पुराने भूमि बंदोबस्त लागू करके बेगार प्रथा भी बंद की और समझौते के बाद 2 ऊंट गाड़ियों में भरकर सोना चांदी राजा ने भेजा और मुआवजा दिया।