हुरडा सम्मेलन की पृष्ठभूमि
मालवा, गुजरात और बुंदेलखंड में मराठों को रोकने में मुगल शासन की असफलता और राजपूत शासकों के आंतरिक झगड़ों में मराठों के प्रथम हस्तक्षेप ने राजपुताने के समस्त विचारशील शासकों की आँखें खोल दी।
मराठों को सफलतापूर्वक रोकने के लिए उपाय सोचने के लिए जयपुर के राजा सवाई जयसिंह ने राजपुताने के सारे शासकों को हुरडा में एकत्रित करने का प्रयास किया।
हुरडा सम्मेलन कब हुआ और इसमें कौन कौन शामिल हुआ?
16 जुलाई 1734 को पहले से ही निश्चित स्थान हुरडा ने सम्मेलन आरम्भ हुआ जिसकी अध्यक्षता मेवाड़ के नए महाराणा जगत सिंह द्वितीय ने की। इस सम्मेलन में सवाई जयसिंह के अलावा जोधपुर से अभय सिंह, नागौर का बख्त सिंह, बीकानेर का जोरावर सिंह कोटा का दुर्जनसाल, बूंदी का दलेल सिंह, करौली का गोपालदास, किशनगढ़ का राजसिंह और राजपुताने के छोटे बड़े नरेश शामिल हुए।
विचार विमर्श करने के बाद सभी शासकों ने 17 जुलाई 1734 को एक समझौते पर हस्ताक्षर किए।
हुरडा सम्मेलन की शर्तें
इस समझौते के अनुसार सभी शासक एकता बनाए रखेंगे, एक का अपमान सभी का अपमान समझा जाएगा। कोई राज्य, दूसरे राज्य के विद्रोही को अपने राज्य में शरण नहीं देगा।
मराठों के विरुद्ध वर्षा ऋतु के बाद कार्यवाही आरंभ की जायेगी जिसके लिए सभी शासक रामपुरा में एकत्रित होंगे और यदि कोई शासक किसी कारणवश उपस्थित होने में असमर्थ होगा तो वह अपने पुत्र अथवा भाई को भेजेगा।
हुरडा क्यों सफल नहीं हो पाया इसके कारण
किंतु इस सम्मेलन की योजनाएं धरातल पर नहीं उतर पाई, प्रत्येक शासक के अपने स्वार्थ थे इसलिए उनमें एकजुटता होना असंभव था इसलिए हुरडा सम्मेलन एक प्रकार से असफल प्रयास साबित हुआ।