सारंगपुर का युद्ध मेवाड़ के राणा कुम्भा और मालवा (मांडू) के सुल्तान महमूद खिलजी के बीच 1437 ईस्वी में हुआ था।
इस युद्ध में राणा कुम्भा का साथ मारवाड़ के राव रणमल राठौर ने दिया।
सारंगपुर के युद्ध की पृष्ठभूमि/ युद्ध का कारण
राणा कुम्भा के पिताजी राणा मोकल का एक हत्यारा महपा पंवार कुम्भा के डर से भागकर मांडू के सुल्तान महमूद खिलजी के पास जाकर छुप गया।
उसके बाद कुम्भा ने उसे सजा देने के लिए उसकी मांग की लेकिन महमूद खिलजी ने उसे आत्मसमर्पण के लिए मना कर दिया उसके बाद राणा ने युद्ध करने का फैसला किया।
सारंगपुर के युद्ध का परिणाम
सारंगपुर में राणा कुम्भा और मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी की सेनाएं आमने सामने हुई और राणा कुम्भा की सेना ने महमूद खिलजी की सेना को बुरे तरीके से हराया और उसकी सेना भाग गई।
खुद सुल्तान महमूद खिलजी मांडू के किले में शरण लेने के लिए भागा लेकिन राजपूतों ने पीछा नहीं छोड़ा और किले को घेर लिया।
सुल्तान महमूद खिलजी ने महपा पंवार से कहा कि अब वह उसे शरण नहीं दे सकता तो महपा गुजरात भाग गया।
उसके बाद राणा कुम्भा ने धावा बोलकर किले पर कब्जा कर किया और राव रणमल की सेना ने सुल्तान महमूद खिलजी की बंदी बना लिया और उसे चित्तौड़ के आए।
विजय स्तंभ का निर्माण
इस जीत के बाद राणा कुम्भा ने चित्तौड़ के किले में विजय स्तंभ बनवाया।
विजय स्तंभ बनवाने से पहले एक बाद मालवा और गुजरात की संयुक्त सेना को राणा ने हराया जिसका उल्लेख उस विजय स्तंभ पर है।
सुल्तान महमूद खिलजी की रिहाई
राणा कुम्भा ने सुल्तान महमूद खिलजी को 6 महीने चित्तौड़ के किले में कैद रखा और बाद में उसे बिना किसी हर्जाने के रिहा कर दिया।